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________________ १८२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ___ दूसरे दिन हेमांगिनीने कहा-चाची, यदि तुम्हें घर न जाना हो तो न जाओ, पर मैं तुमसे यह कहे देती हूँ कि मैं कल अपने माँझी भइयाके साथ घर चली जाऊँगी। बुआने कहा-भला इसकी क्या जरूरत है, मैं भी कल ही चलूँगी। मेरे साथ ही चली चलना । यह देखो, मेरे अविनाशने तुम्हारे लिए कैसी बढ़िया मोतीकी अंगूठी खरीद दी है। यह कहकर बुलाने बड़े अभिमानसे वह अँगूठी हेमांगिनीके हाथमें दे दी। हेमांगिनीने कहा-देखो चाची, मैं कैसा अच्छा निशाना लगाती हूँ। यह कहकर उसने जंगलेमेंसे ताककर वह अँगूठी पोखरीके बीचमें फेंक दी। उस समय क्रोध, दुःख और आश्चर्य के मारे बुआकी बुरी दशा थी। बुआने मेरा हाथ पकड़कर कई बार मुझसे कहा- देखो बहू, खबरदार, इसकी यह लड़कपनकी बात अविनाशसे न कहना। नहीं तो मेरे बच्चे के मनमें दुःख होगा। तुम मेरे सिरकी सौगन्द खायो कि यह बात अविनाशसे नहीं कहोगी। मैंने कहा-नहीं बुअाजी, तुम्हारे कहनेकी आवश्यकता नहीं । मैं उनसे कोई बात नहीं कहूँगी। दूसरे दिन चलने से थोड़ी देर पहले हेमांगिनीने मुझे जोरसे लिपटाकर कहा - बहन, मुझे भूल न जाना, याद रखना। मैंने अपने दोनों हाथ उसके मुँहपर फेरते हुए कहा-बहन, अन्धे कभी कोई बात नहीं भूलते। मेरे लिए जगत तो है ही नहीं। मैं तो केवल एक मनके ही सहारे हूँ। इतना कहकर मैंने उसका माथा खींचकर सूंघा और चूमा । मेरी आँखों से आँसू निकल निकलकर उसके बालोंमें बहने लगे। __हेमांगिनीके बिदा हो जानेपर मानो मेरी सारी पृथ्वी सूख गई। वह मेरे प्राणों में जो सुगन्ध, सौन्दर्य और गीत, जो उज्ज्वल प्रकाश और जो कोमल तरुणता लाई थी, वह सब चली गई। उसके चले
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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