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________________ दृष्टि-दान १८१ लिये हुए एक आँधी आ रही थी। उसीके कारण भीगी मिट्टीकी गन्ध और ठंडी ठंडी हवासे श्राकाश व्याप्त हो रहा था। अँधेरे रास्तेमें लोग व्याकुल होकर अपने अपने बिछड़े हुए साथियोंको पुकार रहे थे। मेरे सोनेके कमरेमें जब तक मैं अकेली रहती थी, तब तक दीया नहीं जलता था । डर था कि कहीं दीएकी लौसे मेरी धोती न जल उठे, अथवा और कोई दुर्घटना न हो जाय । मैं उसी अंधेरे निर्जन कमरेमें जमीनपर बैठी हुई दोनों हाथ जोड़कर अपने अनन्त अन्धजगतके जगदीश्वरको पुकार रही थी । कह रही थी-प्रभु, जब मैं तुम्हारी दयाका अनुभव नहीं करती, जब तुम्हारा अभिप्राय नहीं समझती, तब अपने इस अनाथ भग्न हृदयके डाँडको दोनों हाथोंसे जोरोंसे पकड़कर कलेजेमें दबाए रखती हूँ। मेरे कलेजेमेंसे लहू निकलकर बहने लगता है, फिर भी तूफानको नहीं सँभाल सकती । अब तुम और कहाँ तक मेरी परीक्षा लोगे ! और भला मुझमें बल ही कितना है ! इतना कहते कहते मेरी आँखों में आँसू भर आये। मैं पलंगपर सिर रखकर रोने लगी। दिन-भर मुझे घरका सब काम करना पड़ता था। हेमांगिनी छायाकी तरह बराबर मेरे साथ लगी रहा करती थी। अन्दरसे मुझे रुलाई आती थी, पर आँसू बहानेके लिए मुझे अवसर ही न मिलता था । आज बहुत दिनोंके उपरान्त आँखोंका जल बाहर निकला था। इतनेमें मैंने देखा कि मेरा पलंग कुछ हिला और आदमीके चलनेकी कुछ आहट सुनाई पड़ी। क्षण ही भरमें हेमांगिनी पाकर मेरे गलेसे लग गई और चुपचाप अपने आँचलसे मेरी आँख पोंछने लगी। मैं नहीं समझ सकी कि वह सन्ध्याके समय ही क्या सोचकर और कब मेरे पलंगपर पा सोई है। उसने मुझसे कोई प्रश्न नहीं किया। मैंने भी उससे कोई बात नहीं कही। वह धीरे धीरे मेरे ललाटपर अपना शीतल हाथ फेरने लगी। इस बीचमें कब बादल गरज गया और कब मूसलधार पानी बरस गया, इसका कुछ पता ही न लगा। बहुत दिनोंके उपरान्त एक सुस्निग्ध शान्तिने आकर ज्वरके दाहसे दग्ध मेरे हृदयको ठंडा कर दिया ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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