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________________ .१४२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज जाने क्या हो रहा है । ऐसा जान पड़ता था कि झुकी हुई शाखाएँ वनस्पतियोंकी बातें सुन सकती हैं ; पर कुछ समझ नहीं सकतीं और इसी लिए सब शाखाएँ पत्तोंके साथ मिलकर पागलोंकी भाँति उद्ध श्वास लेती हई हाहाकार करना चाहती हैं। मैं भी अपने समस्त अंगों और समस्त अन्तःकरणसे वह पदविक्षेप और वह विश्रम्भालाप अव्य. वहित भावसे अनुभव करने लगा ; परन्तु किसी भी प्रकार उसे पकड़ नहीं सका ; इसी लिए भूर झूर कर मरने लगा। दूसरे दिन मुझसे नहीं रहा गया। प्रातःकाल ही मैं अपने पड़ोसीसे भेट करने चला गया। उस समय भवनाथ बाबू अपने पास चायका एक बहुत बड़ा प्याला रक्खे हुए आँखोंपर चश्मा लगाये नीली पेन्सिलसे दाग की हुई हैमिल्टनकी एक बहुत पुरानी पुस्तक बहुत ही ध्यान' पूर्वक पढ़ रहे थे। जब मैंने उनके कमरे में प्रवेश किया, तब वे चश्मेके ऊपरी भागमेंसे कुछ देर तक अन्यमनस्क भावसे मुझे देखते रहे ; पर पुस्तकपरसे तत्काल ही अपना मन न हटा सके। अन्तमें वे चकित होकर कुछ त्रस्त भावसे श्रातिथ्यके लिए सहसा उठ खड़े हुए। मैंने संक्षेपमें उनको अपना परिचय दिया । वे इतने घबरा-से गये कि चश्मेका खाना ढूँढ़नेपर भी न पा सके। वे आप ही आप बोले-आप चाय पीएँगे ? यद्यपि मैं कभी चाय नहीं पीता था; तथापि मैंने कहा - मुझे कोई आपत्ति नहीं है । भवनाथ बाबू कुछ घबराकर 'किरण' 'किरण कहकर पुकारने लगे। दरवाजेके पाससे बहुत ही मधुर शब्द सुनाई दिया- हाँ बाबूजी। इसके उपरान्त मैंने देखा कि तपस्वी कण्वकी कन्या मुझे देखते ही सहमी हुई हरिनीकी भाँति वहाँसे भागना चाहती है । भवनाथ बाबूने उसे अपने पास बुलाया और मेरा परिचय देते हुए कहा-ये हमारे पड़ोसी बाबू महीन्द्रकुमार हैं । और मुझसे कहा-यह मेरी कन्या किरणवाला है। लाख सोचने पर भी मेरी समझमें न पाया
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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