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________________ अध्यापक १४१ मैंने उधर देखा भी नहीं । जिस प्रकार कृपण अपना रत्न- भाण्डार छिपाता फिरता है, उसी प्रकार मैं भी अपने उस उत्तर प्रोरवाले बागकी हिफाजत करता फिरता था । ज्यों ही अमूल्य वहाँसे रवाना हुआ त्यों ही मैं दौड़कर दरवाजा खोलता हुआ उत्तर चोरवाले बरामदे में जा पहुँचा। ऊपर खुले हुए आकाश में प्रथम कृष्ण पक्षकी अपर्याप्त चाँदनी थी और नीचे शाखा जाल - निबद्ध तरुश्रेणी के नीचे खंड किरणों से खचित, एक गम्भीर और एकान्त प्रदोषान्धकार था जो मर्मर शब्द करते हुए सघन पत्तोंके दीर्घ निश्वास में, वृक्षोंसे गिरे हुए बकुलके फूलों के सघन सौरभमें और सन्ध्यारूपी जंगलकी स्तम्भित और संयत निःशब्दतामें रोम रोम परिपूर्ण हो रहा था । इसी अन्धकार में मेरी कुमारी पड़ोसिन सफेद मूछोंवाले अपने वृद्ध पिताका दाहिना हाथ पकड़े हुए धीरे धीरे टहल रही थी और कुछ बातें कर रही थी । वृद्ध पिता स्नेह तथा श्रद्धापूर्वक कुछ झुककर चुपचाप मन लगाये उसकी बातें सुन रहे थे । इस पवित्र और स्निग्ध विश्रम्भालापमें बाधा देनेवाली कोई चीज नहीं थी । केवलसन्ध्या समयकी शान्त नदीमें कहीं कहीं होनेवाला डाँड़का शब्द बहुत दूरीपर विलीन हो जाता था और वृक्षोंकी घनी शाखाओं के असंख्य घोंसलोंमेंसे कभी कभी बीच बीच में दो एक पक्षी मृदु शब्द करते हुए जाग उठते थे। मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो मेरा हृदय श्रानन्द अथवा वेदनासे विदीर्ण हो जायगा । मेरा अस्तित्व मानो फैलकर उस छाया -लोकविचित्र पृथ्वी के साथ मिलकर एक हो गया । मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो मेरे वक्षःस्थल पर कोई धीरे धीरे चल रहा है; मानो मैं वृक्षों के पत्तोंके साथ संलग्न हो गया हूँ और मेरे कानों के पास कोमल गुंजारकी ध्वनि हो रही है । इस विशाल मूढ़ प्रकृतिकी अन्तर्वेदना मानो मेरे सारे शरीरकी हड्डियों तक में पैठ गई है। मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि पृथ्वी मेरे पैरोंके नीचे पड़ रही है; परन्तु पैर उसपर जमकर नहीं बैठ सकता और इसीलिए अन्दर ही अन्दर मनमें न
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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