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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मैंने मन ही मन स्थिर किया कि विश्व-प्रेम, दूसरोंके लिए आत्म-विसर्जन और शत्रुको क्षमा करनेका भाव लेकर, चाहे गद्यमें हो और चाहे पद्यमें, बहुत ही सूक्ष्म भावोंसे पूर्ण कुछ लिखूगा और समालोचकोंके लिए एक बहुत बड़ी समालोचनाकी खुराक जुटाऊँगा। मैंने स्थिर किया कि एक सुन्दर निर्जन स्थानमें बैठकर मैं अपने जीवनकी इस सर्वप्रधान कीर्तिकी सृष्टिका कार्य सम्पन्न करूँगा। मैंने प्रतिज्ञा कर ली कि कमसे कम एक मास तक मैं अपने किसी बन्धुबान्धव या परिचित-अपरिचितके साथ भेटतक न करूंगा। मैंने अमूल्यको बुलाकर अपना यह सब विचार बतलाया। वह बिलकुल स्तम्भित हो गया-मानो उसने उसी समय मेरे ललाटपर स्वदेशकी समीपवर्तिनी भावी महिमाकी प्रथम अरुण ज्योति देख ली। उसने बहुत ही गम्भीर भावसे मेरा हाथ पकड़कर जोरसे दबा लिया और आँखें फाड़ फाड़कर मेरे मुँहकी ओर देखते हुए कोमल स्वरमें कहा-हाँ भाई, तुम जानो और अमर कीर्ति, अक्षय गौरव उपार्जित करके आओ। मेरे शरीरमें रोमांच हो पाया। मुझे ऐसा जान पड़ा कि भावी गौरवसे गर्वित और भक्तिसे विह्वल मेरे देशका प्रतिनिधि बनकर ही अमूल्य मुझसे ये सब बातें कह रहा है। ___ अमूल्यने भी कुछ कम त्याग नहीं स्वीकृत किया। उसने स्वदेशके हितके विचारसे सुदीर्घ पूरे एक मास तक मेरे संग साथकी प्रत्याशा पूर्ण रूपसे विसर्जित कर दी। गम्भीर दीर्घ निश्वास लेकर मेरा मित्र ट्रामपर चढ़ कर कार्नवालिस स्ट्रीटवाले अपने निवासस्थानकी ओर चला गया ; और मैं अपने गंगा-किनारेके फरासडाँगेवाले बागमें अमर कीति तथा अक्षय गौरव उपार्जित करने के लिए आ रहा ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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