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________________ अध्यापक १२९ समझते थे कि चोरी अाखिर चोरी ही है। मेरी चोरी और दूसरोंकी चोरीमें कितना अन्तर है, यह समझनेकी शक्ति यदि उन लोगोंमें होती, तो मुझमें और उनमें कुछ विशेष अन्तर न रह जाता। ___ मैंने बी० ए० की परीक्षा दी । मुझे इस बातमें कोई सन्देह नहीं था कि मैं परीक्षामें उत्तीर्ण हो जाऊँगा । परन्तु मनमें कुछ प्रानन्द नहीं रहा । वामाचरणकी इन कई बातोंके प्राघातसे मेरी ख्याति और आशाका गगनभेदी मन्दिर बिलकुल ढह गया । हाँ, अबोध अमूल्यचरणके मनमें मेरे प्रति जो श्रद्धा थी, केवल उसमें ही कोई कमी नहीं हुई। प्रभातके समय जब यशःसूर्य मेरे सन्मुख उदित हुआ था, तब भी वह श्रद्धा बहुत लम्बी छायाकी भाँति मेरे पैरों के साथ साथ लगी चलती थी और अब सन्ध्या समय जब मेरा यशःसूर्य अस्त होने लगा, तब भी वह उसी प्रकार दीर्घ और विस्तृत होकर मेरे पैरोंके साथ ही साथ लगी फिरती थी-उनका परित्याग नहीं करती थी। पर इस श्रद्धा कोई परितृप्ति नहीं थी। यह शून्य छायामात्र थी। यह मूढ़ भक्त-हृदयका मोहान्धकार था–बुद्धिका उज्ज्वल रश्मिपात नहीं था। पिताजीने मेरा विवाह कर देने के लिए मुझे देशसे बुला भेजा । मैंने उनसे विवाहके लिए और कुछ दिनोंका समय माँगा। वामाचरण बाबूने मेरी जो समालोचना की थी, उसके कारण स्वयं मेरे ही मनमें एक प्रकारका प्रात्म-विरोध-अपने ही प्रति अपना एक विद्रोहभाव-उत्पन्न हो गया था। मेरा समालोचक अंश गुप्त रूपसे मेरे लेखक अंशपर आघात किया करता था। मेरा लेखक अंश कहता था कि मैं इसका बदला लूंगा। मैं फिर एक बार लिखूगा और तब देखूगा कि मैं बड़ा हूँ या मेरा समालोचक बड़ा है ।
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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