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________________ १२२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज लिए आती है । उस समय जगतके साथ इनकी जो आत्मीयता हो जाती है, उसके गर्वसे कुछ दिनोंके लिए इनकी क्षुद्रता मानो नष्ट हो जाती है। सभी मानो सचल, सजग और सजीव हो उठती हैं और मौन-निस्तब्ध देशमें सुदूरके राज्योंकी कलालाप ध्वनि आकर चारों पोरके आकाशको आन्दोलित कर देती है। ___ इसी समय कुडुलकाँटाके नाग बाबूके इलाकेमें रथ-यात्राका प्रसिद्ध मेला था । चाँदनीवाली सन्ध्यामें तारापदने घाटपर जाकर देखा कि कोई नाव हिंडोला या चरखी लिए, कोई बिक्रीका सौदा सुलुफ लिये प्रबल नवीन स्रोतोमें होती हुई मेलेकी ओर जा रही है । कलकत्तेके कन्सर्ट दलने जोर जोरसे अपने बाजे बजाने प्रारम्भ कर दिये हैं । रासधारी हारमोनियम और बेला बजाकर गीत गा रहे हैं और सम आने पर हा हा करते हुए चिल्ला उठते हैं। पश्चिमकी नावोंके मल्लाह केवल ढोल और करताल लेकर ही उन्मत्त उत्साहसे बिना संगीतके ही चिल्ला कर आकाश गुंजा रहे हैं। उनके उद्दीपनकी कोई सीमा ही नहीं है। देखते देखते पूर्व दिशासे घने बादल काले पाल उड़ाते हुए आकाशके मध्यमें श्रा पहुंचे। चन्द्रमा उन बादलोंमें छिप गया। पुरवा हवा जोरोंसे बहने लगी। बादलके पीछे बादल बढ़ते हुए चलने लगे। नदीतटकी हिलती हुई वन-श्रेणीमें घोर अन्धकार छा गया। मेंढक बोलने लगे। झिल्लियोंकी ध्वनि मानो करोंतसे उस अन्धकारको चीरने लगी । सामने आज मानो सारे जगतकी रथयात्रा थी। चक्र घूम रहे थे, ध्वजाएँ उड़ रही थीं, पृथ्वी काँप रही थी, बादल मँडरा रहे थे, हवा जोरोंसे चल रही थी, नदी बह रही थी, नावें चली जा रही थीं, संगीत हो रहा था। देखते देखते बादल जोरोंसे गरजने लगे। बिजली आकाशको काटकाटकर चमकने लगी । बहुत दूरसे अन्धकारमेंसे मूसलधार वृष्टि होनेकी सूचना मिलने लगी। केवल नदीके एक तटपर एक कोने में पड़ा हुआ
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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