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________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज को परिहासका विषय समझा और वे स्नेहपूर्वक हँस पड़े; परन्तु कन्याने उस प्रस्तावके परिहास्य अंशको प्रचुर अश्रुजलकी धारासे बहुत ही जल्दी धोकर दूर कर दिया। अन्तमें इन स्नेहदुर्बल निरुपाय अभिभावकोंने बालिकाका वह प्रस्ताव गम्भीर भावसे स्वीकार कर लिया। अब चारु भी तारापदके साथ ही मास्टर साहबसे अँगरेजी पढ़ने लगी। परन्तु पढ़ना लिखना इस अस्थिर-चित्त बालिकाके स्वभावके अनुकूल नहीं था । वह स्वयं तो कुछ भी न सीखती ; हाँ, तारापदके सीखने में बाधा अवश्य डालने लगी। वह पिछड़ जाती और अपना पाठ कण्ठ नहीं करती ; पर फिर भी किसी प्रकार सारापदसे पीछे नहीं रहना चाहती। जब तारापद उससे आगे बढ़कर नया पाठ सीखने लगता, तब वह बहुत नाराज होती; यहाँ तक कि रोने-धोनेसे भी बाज नहीं आती। जब तारापद एक पुरानी पुस्तक समाप्त करके दूसरी नई पुस्तक खरीदने लगता, तब उसके लिए भी एक नई पुस्तक खरीदनी पड़ती । तारापद फुरसतके समय अपनी कोठरीमें बैठकर लिखा करता और अपना पाठ कण्ठ किया करता । पर उस ईर्ष्या-परायणा बालिकाको यह बात सह्य नहीं होती । वह छिपकर उसकी लिखनेकी कापीपर स्याही गिरा देती; कलमको ही कहीं छिपाकर रख दिया करती ; यहाँ तक कि पुस्तकका जो पृष्ठ वह पढ़ता, उस पृष्ठको ही फाड़ दिया करती। तारापद बहुत ही कौतुकपूर्वक इस बालिकाका यह सब दौरात्म्य सहन किया करता । पर जब उसे बहुत असह्य हो जाता, तब वह कभी कभी उसे थोड़ा बहुत मार भी बैठता ; पर फिर भी किसी प्रकार उसका शासन नहीं कर सकता। संयोगसे एक उपाय निकल आया। तारापद एक दिन बहुत ही विरक्त होकर स्याही गिरी हुई अपनी लिखनेकी कापी फाड़कर बहुत
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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