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________________ अतिथि १०३ पगडंडियाँ, घने वनोंसे घिरे हुए छायामय ग्राम, उसकी आँखों के सामने आने लगे । यही जल, स्थल और आकाश, यही चारों ओरकी सचलता, सजीवता और मुखरता, यही ऊर्ध्व अधोदेशकी व्याप्ति और वैचित्र्य तथा निर्लिप्त सुदूरता, यही सुबृहत् चिरस्थायी निनिमेष वाक्यविहीन विश्व जगत् उस तरुण बालकका सबसे बड़ा आत्मीय (अपना) था । फिर भी वह इस चंचल मानव-कटिको एक क्षण के लिए भी स्नेहबाहुसे पकड़ रखने की चेष्टा नहीं करता था। बछड़े अपनी रस्सी तुड़ा.. कर नदीके तटपर दौड़ रहे थे । गाँवोंके टट्टू रस्सीसे बँधे हुए अगले दोनों पैरोंसे उछलते हुए घास खाते फिरते थे । मच्छीखोर (पक्षी) मछुओंके जाल बाँधनेके बाँसों के ऊपरसे बहुत वेगके साथ धपसे जलमें कूदकर मछलियाँ पकड़ रहे थे । लड़के जल में उतरकर अनेक प्रकारकी क्रीड़ाएँ कर रहे थे । स्त्रियाँ जोर जोरसे हँसती हुई आपसमें बातें करती जाती थीं और छाती तक जलमें उतरकर अपनी धोतियोंके आँचल फैलाकर दोनों हाथोंसे उन्हें मलमलकर साफ कर रही थीं। मछली बेचनेवाली स्त्रियाँ, कमर बाँधे हुए, मछुओंसे मछलियाँ खरीद रही थीं। तारापद बैठा बैठा सदा नवीन बने रहनेवाले प्रश्रान्त कुतूहलसे यह सब देख रहा था- उसकी दृष्टिकी प्यास किसी तरह बुझती ही न थी। नावकी छतपर पहुँचकर तारापदने पालकी रस्सी थामनेवाले मल्लाहसे बात करना प्रारम्भ कर दिया। बीच बीचमें आवश्यकता पड़नेपर वह मल्लाहके हाथसे लग्गी लेकर आप भी दस पाँच हाथ लगा दिया करता था । जब मल्लाहको तमाखू पीने की आवश्यकता हुई, तब उसने उसके हाथसे पतवार ले ली ; और जब जिधर पाल घुमानेकी आवश्यकता हुई, तब बहुत ही दक्षतापूर्वक उसे भी उधर घुमा दिया । जब सन्ध्या होनेको पाई, तब अन्नपूर्णाने उसे बुलाकर पूछारातके समय तुम क्या खाया करते हो ?
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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