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________________ १०२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज त्यागी बालकके मुखपर एक शुभ्र स्वाभाविक तारुण्य अम्लान भावसे प्रकाशित हो रहा था । उसके मुखकी वही श्री देखकर वृद्ध अनुभवी मोतीलाल बाबूने उससे बिना कुछ पूछे ही और उसपर बिना किसी प्रकारका सन्देह किये ही उसे परम आदरपूर्वक अपने साथ ले लिया। . जब सब लोग भोजन आदि कर चुके, तब नाव खोल दी गई। अन्नपूर्णा बहुत ही स्नेहपूर्वक इस ब्राह्मण बालकसे उसके घर तथा आत्मीय परिजनों आदिकी बातें पूछने लगी। तारापदने उसके सब प्रश्नोंका बहुत ही संक्षेपमें उत्तर देकर किसी प्रकार अपनी जान छुड़ाई और वह बाहर आकर खड़ा हो गया। बाहर वर्षाकी नदी परिपूर्णताकी अन्तिम रेखा तक भर उठी और उसने अपनी चंचलतासे प्रकृति माताको मानो उद्विग्न कर दिया। आकाशमें बादल न होने के कारण धूप बहुत तेज हो रही थी। उस धूपमें नदीके तटपर काँस तथा दूसरे अनेक प्रकारके तृण आदि आधे पानी में डूबे हुए थे और आधे बाहर निकले हुए । उनके ऊपर सरस सघन ऊखके खेत और उनकी दूसरी ओर बहुत दूर दूर तक नीलांजन वर्णकी वन-रेखा थी। मानो ये सब पुरानी कहानीकी सोनेकी छड़ीके स्पशंसे सद्य-जाग्रत नवीन सौन्दर्यके समान निर्वाक नीलाकाशकी मुग्ध दृष्टि के सामने प्रस्फुटित हो उठे थे। सभी मानो सजीव, स्पन्दित, प्रगल्भ, आलोकके द्वारा उद्भासित, नवीनतासे चिकने, चमकते हुए तथा प्रचुरतासे परिपूर्ण थे । तारापदने नावकी छतपर पहुंचकर पालकी छायामें आश्रय लिया। धीरे धीरे डालुए हरे भरे किनारे, पानीसे भरे हुए पटसनके खेत, गाढ़ श्यामल धानोंका लहराना, घाटसे गाँवकी ओर जानेवाली संकीर्ण
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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