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________________ अतिथि 88 कर्तव्य पालन करनेके लिए उसे पहले तो बहुत ही साधारण रूपसे कुछ डाँटने डपनेकी चेष्टा की और अन्तमें बहुत ही अनुतप्त हृदयसे बहुत अश्वासन और पुरस्कार दिया। पास-पड़ोसकी स्त्रियाँ उसे अपने अपने घर बुलाकर उसका बहुत आदर करतीं और उसे बहुत कुछ प्रलोभन देकर बाँधना चाहतीं। पर इन बन्धनोंको, यहाँ तक कि स्नेहबन्धनको भी उसने कुछ न समझा । उसके जन्मकालके नक्षत्रोंने ही उसे गृहहीन बना दिया था। वह जब देखता कि विदेशी मल्लाह लोग गून खींचकर नदीमेंसे नावें ले जा रहे हैं, अथवा गाँवके बड़े बड़के वृक्षके नीचे किसी दूर देशसे आकर कोई संन्यासी ठहरा है, अथवा कंजड़ लोग नदी-किनारेके पड़े हुए मैदानमें छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बाँधकर बाँस छील छील कर टोकनियाँ और डालियाँ तयार कर रहे हैं, तब बाहरी अज्ञात पृथ्वीको स्नेहहीन स्वाधीनताके लिए उसका चित्त अशान्त हो उठता । जब वह लगातार दो तीन बार घर छोड़ छोड़कर भागा, तब उसके घरके लोगों तथा गाँववालोंने उसकी प्राशा छोड़ दी। पहले वह रासधारियोंके एक दलके साथ हो गया। उस दलका प्रधान उसे पुत्र के समान चाहता और वह दलके सभी छोटे बड़े श्रादमियोंका प्रेमपात्र बन गया—यहाँ तक कि जिस घरमें रासलीला होती उस घरके मालिक और विशेषतः स्त्रियाँ भी उसे बहुत मानतीं और विशेष रूपसे उसे अपने पास बुलाकर उसका बहुत आदर किया करतीं। इतना सब कुछ होने पर भी वह एक दिन बिना किसीसे कुछ कहे सुने, न जाने कहाँ, चला गया और फिर किसीको उसका पता नहीं लगा। तारापदको बन्धनसे उतना ही डर लगता, जितना हिरनके बच्चेको लगता है ; और हिरनके ही समान वह संगीतका भी प्रेमी था। रासधारियों के संगीतने ही पहले पहल घरसे उसका मन उचाट किया था। संगीतका स्वर सुनते ही उसके शरीरकी नसें काँपने लगतीं । और गाने
SR No.010680
Book TitleRavindra Katha Kunj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi, Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1938
Total Pages199
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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