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________________ प्रयं-जब कि उस बगीचे के रक्षक माली ने जाकर खबर को कि प्रापके बगीचे में प्रात्मध्यानी मुनि महाराज मा बिराजे है तो यह सुनकर चक्रायुध का पिता अपराजित राजा बहुत प्रसन्न हुवा जमे कि कूकडे को आवाज मे मूर्य का उदय जानकर चकवा पक्षी खुश हो जाया करता है। ममेन्य पवादभिवन्द्यपादी जन्माम्बधी यागभूदनादौ परिश्रमः म्बम्प यथाक्रमं तं अन्याऽमुनो निर्विविदे स्विदन्तः ।३५ प्रयं-फिर वहां मे मुनिराज के पास पहुंच कर अपराजित महाराज ने मुनि के चरणों में नमस्कार किया और उनके मुख से जमा कि हम मंमार ममुद्र में अनादि काल से जन्म मरण होता प्राया है वह अपने आप का भी जब उसने सुना तो उसके मन में संसार से वैराग्य हो गया। नतोऽत्र भोगाच्चभवाददामी-भवन्महान्मा मुकनेकशिः । विहाय देहादम्बिलं यदन्यद् दधौ यथाजानपदं स धन्यः ।३६ प्रयं-- इसके बाद संसार के भोग और इस शरीर से भी विरक्त होते हुये उत्तम कर्तव्य के स्थान उस महा पुरुष ने इस प्रपने साथ लगे हुये शरीर के सिवा बाकी की सभी बाह्य वस्तुओं का त्याग कर यथाजात नग्न दिगम्बर वेश को स्वीकार कर लिया एवं मुनि होकर धन्यवाद का पात्र बना । चक्रायधः प्राप्य पितुः पदं म भृमण्डलाशेषनृपावनंमः । दधार दीनोद्धरणंम्वतन्वाऽहन्तं हृदा सत्यवचा भवन्वा ।३७
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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