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________________ ७३ प्रपं-इधर पिता के मुनि हो जाने पर चकायुध ने पिता के पद पर राजापन प्राप्त किया जो कि अपने कर्तव्य से शरीर द्वारा दोनों का उद्धार करने वाला प्रौर हाय मे हर समय धो महंन्त भगवान को मरा करने वाला एवं मापवादो होते हुये हम मू मण्डल पर के मनी राजाप्रो का मुखिया ना। दृष्टाप ने शल्यपदानमः शिणात्मने मृक्षणान्मयः । कुष्टान्मने मम्प्रति निम्बकल्पः प्रजाग गजायमभन्मजलपः ।३८ प्रयं-जिमने अपने प्रापको वा में कर सकता था इसलिये दृष्टरियों के लिये वर शल्य के समान हर समय नभने वाला था किन्तु मज्जनों के लिये मकान में भी प्राधा कोमन था एवं उसको प्रजा में जो प्रादमो कोट के गमान बिगान करने वाला होता या उमको निम्ब के प्रयोग के समान गोघ्र हा सुधारकर ठोक कर लिया करता था, हम ताद वह बहुत हो प्रामापात्र बन गया था। वत्रन्चमाया म दर्जनभ्यश्चिन्तामणिन्यं भवि निर्धनभ्यः मभ्या च ड़ामणिनां प्रयान: म्पाटव नम्मिन्नगन्नताऽनः ।३०। प्रय - दुर्गन लोगों के लिये वह वन प्रर्थान होग को कगि का बनकर या मुग्दर ममान होकर दान लोगों को चिन्तामणि ममान मनवांछित देनेवा ना या प्रारमनाक लोगों में बड़ामणि समान मुख्य गिना जाने वाला था इमप्रकार वह सम्मृतः नर रस्न था। नक्षत्रशन्योऽपि मतां वर्गणः नवामिदोऽपि पुनः प्रवीणः अजिह्मवर्गः कलिनाऽयहीनः जहागयत्वातिगती नदीनः ।४।।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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