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________________ आनन्दघन का रहस्यवाद ३१४ उठता है। किन्तु प्रियतम तक पहुँचने में उसे मोह-मायाजन्य अनेक विघ्न-बाधाओं से जूझना पड़ता है । रहस्यवादी साधना के विकास की अवस्थाओं में प्रिय-मिलन की उत्कण्ठा जागृत होने के पश्चात् विघ्न की अवस्था आती है, जिसे अण्डरहिल ने 'द डार्क नाइट आफ द सोल' कहा है। यह अवस्था प्रिय-मिलन में बाधक होती है। सूफी रहस्यवादियों के मतानुसार प्रिय-मिलन में बाधक शैतान होता है और भारतीय रहस्यवादी-साधक के अनुसार माया। सन्त आनन्दधन ने परमात्म-दर्शन में बाधक तत्त्वों-माया, ममता और कर्म को प्रमुख माना है। माया रहस्यवादी सन्त आनन्दघन ने कबीर की भाँति कर्म के अतिरिक्त आत्मा-परमात्मा के मिलन में माया को बाधक माना है । योगी की साधना माया के द्वारा ही भंग होती है। इसीलिए प्रायः सभी साधकों ने 'माया' को परमात्म-मिलन में अपना परम शत्रु माना है। गोरखनाथ ने माया को बाघिन के रूप में चित्रित किया है और कहा है कि यह माया रूपी बाघिन दिन को मन मोहती है और रात में सरोवर का शोषण करती है। मूर्ख लोग जानकर भी घर-घर में इस व्याघ्रा का पोषण करते हैं।' सन्त आनन्दधन ने भी कहा है कि मूर्ख मानव आनन्दधनमय आत्म रूपी हीरे को छोड़कर माया रूपी कंकर-पत्थर में मोहित हो गया है : आनन्दघन हीरो जन छारे, नर मोह्यो माया कंकरी । इसी प्रकार उन्होंने 'माया' के द्वारा चेतन के छले जाने की बात भी अन्य पदों में कही है। यह माया अज्ञान का प्रतीक है। जैनदर्शन में इसे मिथ्यात्व कहा गया है। जैनदर्शन के चार कषायों के अन्तर्गत माया भी एक है तथा इसे छल और कपटपूर्ण वृत्ति कहा गया है। इसका काम है जगत् को छलना। साथ ही यह माया सबको मोहित करनेवाली है। इसीलिए १. दिवसै बाघणि मन मोहै राति सरोवर सोषै । जाणि बुझि रे मुरिष लोया धरि-धरि बाघिण पोषै ॥ -हिन्दी काव्यधारा, पृ० १६० । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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