SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहस्यवाद : एक परिचय भी कहां था ? तब न मृत्यु थी न अमृत। रात और दिन के अन्तर को समझने का भी कोई साधन नहीं था। वह अकेला ही अपनी शक्ति से वायु के न होते हुए भी श्वास प्रश्वास ले रहा था। इसके अतिरिक्त इसके परे कुछ न था।'' ऋग्वेद के 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' सूत्र में भी रहस्यात्मकता परिलक्षित होती है। उसमें कहा गया है-इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि,सुवर्ण, यम मातरिश्वान् इत्यादि पृथक्-पृथक् देवता इसी एक के अनेक रूप हैं। वस्तुतः सत्य पदार्थ एक ही है, किन्तु विद्वान् उसे अनेक नामों से परिभाषित करते हैं। रहस्यमय ब्रह्म की महत्त्वपूर्ण कल्पना का वर्णन भी ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में इस रूप में हुआ है—'यही व्यापक विराट् तत्त्व हजारों हाथ, पैर, आँख और सिरवाला पुरुष है। सारी पृथ्वी को ढंककर परिमाण में दश अंगुल अधिक है। इसी तरह ब्रह्म की रहस्यात्मकता का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है। उपनिषदों में रहस्यवाद __रहस्यात्मक भावना का विकसित रूप उपनिषद्-साहित्य में उपलब्ध होता है। उसमें ब्रह्मविद्या, ब्रह्मविद्या की रहस्यमयता एवं गोपनीयता का वर्णन है। इसके अतिरिक्त उसमें आत्मा का स्वरूप, आत्मा की महत्ता और उसे ज्ञान, बुद्धि, प्रवचन-श्रवण आदि से अप्राप्य माना गया है। परा तथा अपरा विद्या की रहस्यात्मकता भी सुन्दर ढंग से प्रतिपादित है। १. ना सदासीनो सदासीत्तदानीं नासीद् रजो नो व्योमा परोयत् । किमावरीवः ? कुहकस्य शर्मन् ? अम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥ न मृत्युरासीदमृतं न तहि न रात्र्या अहनः आसीत् प्रकेतः । आनीदवातं स्ववया तदेकं तस्काद्धान्यन्न परः किं च नास ॥ -ऋग्वेद १०।१२९।१, २ २. इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरूत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ -ऋग्वेद, १११६४।४६ ३. सहन्त शीर्षा पुरुष. सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ गुलम् ॥ -ऋग्वेद १०१९०११ ४. वही, १०।१२१
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy