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________________ १८८ आनन्दघन का रहस्यवाद चार्वाक के आत्मवाद के सम्बन्ध में आनन्दघन का कथन है कि चार भूतों के अतिरिक्त आत्मतत्त्व नामक कोई पृथक् सत्ता नहीं है।' कहा जा सकता है कि चार्वाक-दर्शन में आत्मा की अनित्यता से अभिप्राय केवल विनाशशीलता है और विनाश में आत्मा का सर्वथा अभाव हो जाता है । इस मत में आत्मा के विनष्ट होने के पश्चात् उनकी पुनरोत्पत्ति को स्वीकार नहीं किया गया है। इसी कारण इसमें पुनर्जन्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग नर्क, बन्धन-मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं पाई जाती। ___ भगवान् बुद्ध ने आत्मा के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त दिया है वह 'अनुच्छेद-अशाश्वतवाद' है अर्थात् उनके अनुसार न तो आत्मा एकान्त रूप से विनाशशील है और न एकान्त रूप से नित्य है। अन्य शब्दों में बौद्धदर्शन में आत्मा की अनित्यता का अभिप्राय केवल विनाशशीलता से न होकर उत्पत्ति से भी है। बौद्ध-मत में आत्मा को उत्पाद-व्यय धर्मी अर्थात् सतत परिवर्तनशील माना गया है और चार्वाक-मत में आत्मा को केवल व्ययधर्मी (विनाशशील)। इसी तरह, बौद्ध-मत में विज्ञान-स्कन्ध, या चेतनाप्रवाह को आत्मा कहा गया है और चार्वाक-मत में चार भूतों के समूह से चैतन्य-तत्त्व (आत्मा) की उत्पत्ति बतायी गयी है। इस प्रकार दोनों के अनुसार चेतना प्रवाह और चार भूतों के अतिरिक्त आत्सा नामक कोई नित्य एवं स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है। ___ अनित्य आत्मवाद का सिद्धान्त भी पर्यायार्थिन-नय की अपेक्षा से आंशिक रूप से सत्य अवश्य है, किन्तु ऐकान्तिक रूप से इसे मानने पर बन्ध-मोक्ष, सुख-दुःख आदि को सिद्ध करने की नैतिक कठिनाई आती है। आनन्दघन ने मुख्य रूप से अनित्य आत्मवाद के प्रति निम्नांकित दोष प्रस्तुत किए हैं। (१) यदि आत्मा को अनित्य या क्षणिक माना जाय तो बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था घटित नहीं होती। अनित्य-आत्मवाद के अनुसार आत्मा प्रति१. भूत चतुष्क वरजी आतम तत, सत्ता अलगी न घटै । अंध सकट जो नजर न देखे, तो स्यू कीजै सकटै ॥ -आनन्दघन ग्रन्थावली, मुनि सुव्रत जिन स्तवन । २. बंध मोख सुख दुख नवि घटै, एह विचार मन आणो। -वही।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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