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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार ऐसा ही वर्णन केनोपनिषद्', कठोपनिषद्, बृहदारण्यक, माण्डूक्योपनिषद्, तैत्तिरीय उपनिषद् और अवियोपनिषद् में भी है। ___ आचारांग में आत्मा को अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य भी कहा गया है।' यही बात सुबालोपनिषद् और गीता में भी कही गई है। आचारांग के समान आनन्दघन ने भी आत्मा के निषेधात्मक स्वरूप का चित्रण किया है। वे कहते हैं कि जो साधक आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानेगा वही उस परमतत्त्व का आस्वादन कर सकेगा। वस्तुतः आत्मा न पुरुष है और न स्त्री । आत्मा का न कोई वर्ण है न जाति । आत्मा न ब्राह्मण है न क्षत्रिय, न वैश्य है और न शुद्र । न वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि है, क्योंकि ये भेद शरीर आश्रित हैं। न आत्मा साधु है न साधक, न लघु है न भारी, न गर्म है न ठण्डा। न वह दीर्घ है न छोटा। वह न किसी का भाई है, न भगिनी, न पिता है और न पुत्र। यह आत्मा न मन है न शब्द है। यह न तो वेश है न भेष है। न यह कर्ता है और न कर्म है। इसे न देखा जा सकता है, न स्पर्श किया जा सकता है और न इसका स्वाद लिया जा सकता है अर्थात् आत्मा रूप, रस, गन्ध-वर्ण-विहीन है; अतएव उसके दर्शन एवं स्पर्शन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अन्त में, आनन्दघन कहते हैं कि आत्मा (मेरा) का १. केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक ३। २. कठोपनिषद, अ० १, श्लोक १५ । ३. बृहदारण्यक ८, श्लोक ८ । ४. माण्डूक्योपनिषद्, श्लोक ७ । ५. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली २, अनुवाक् ४। . ६. ब्रह्मविद्योपनिषद्, श्लो० ८१-९१ । ७. सन छिज्जइ न भिज्जइ न इज्झइ न हम्मइ, कं च णं सव्वलोए। -आचारांग, १।३।३ ८. न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते । न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनोऽयमात्मा ॥ -सुवालोपनिपद्, ९ खण्ड ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद्, अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमवलेद्योऽशोषय एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ गानगीना, अ० २, श्लो० २३ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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