SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ आनन्दघन का रहस्यवाद सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं। वस्तुतः आत्मा ज्ञान-दर्शनमय है। यही बात संथारापोरिसी सूत्र' एवं नियमसार में इस प्रकार कही गई है कि ज्ञानदर्शन से युक्त एक मेरा आत्मा ही शाश्वत है। अन्य सभी बाह्य-भाव तो संयोगवश है। आत्मा के चैतन्य स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुए आनन्दघन वासुपूज्य जिनस्तवन में कहते हैं : ____ 'चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिन चंदो रे । ३ जिनेश्वर देव का कथन है कि चेतन (आत्मा) किसी भी अवस्था में अपने चैतन्य-स्वभाव को नहीं छोड़ता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा गया है कि 'जीव स्वभावश्चेतना। यत संन्निधानादात्मा ज्ञाता द्रष्टा कर्ता भोक्ता च भवति तल्लक्षणो जीव'४-अर्थात् जिस शक्ति के सान्निध्य से आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा अथवा कर्ता-भोक्ता होता है, वह चेतना है और वही जीव का स्वभाव होने से उसका लक्षण है। इस प्रकार, आत्मा के लक्षण का विचार करने से सहज ही ज्ञात हो जाता है कि आत्मा का मुख्य लक्षण चेतना है । आत्मा के उक्त लक्षण में जो यह कहा गया है कि आत्मा अपने चैतन्य स्वभाव का परित्याग नहीं करता, वह द्रव्याथिक नय को लक्ष्य करके कहा गया है । मुनि ज्ञानसार ने यही बात इस रूप में कही है : धर्मी अपने धर्म को, तने न तीनों काल । आत्मा न तजै ज्ञान गुण, जड़ किरिया को चाल ॥५ यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि चेतना से आनन्दधन का क्या अभिप्राय है ? और वह कितने प्रकार की है ? चेतना के विविध पहलुओं का १. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदसण संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा। -संथारापोरिसीसूत्र । २. एगो मे सासदो अप्पा, णाणदसण लक्खणो। सेसा में बहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ -नियमसार, १०२ एवं भाव-प्राभृत, ५९ । ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन । ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० २९६-९७ । ५. मुनि ज्ञानसार, उद्धृत-आनन्दधन ग्रन्थावली, पृ० २९६ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy