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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार १७३ ने भी आत्मा के लक्षण के रूप में उपयोग अथवा चेतना माना है। निशीथ चूणि में तो स्पष्ट कहा गया है कि 'जहां आत्मा है, वहां उपयोग (चेतना) है, और जहां उपयोग है, वहां आत्मा है।' ___ इसी विचारसरणि का अनुसरण करते हुए सन्त आनन्दघन ने भी सर्वप्रथम 'आनन्दघन चेतनमय मूरति' के कथन द्वारा आत्मा का लक्षण चैतन्यमय प्रतिपादित किया है। वे इस धारणा को पुष्टि शान्तिजिन स्तवन में करते हैं : आपणो आतम भाव जे, एक चेतना धार रे। अवर सवि संयोग थी, एह निज परिकर सार रे ॥२ आत्मा का स्व-स्वभाव चेतन है और आत्मसत्ता का आधार चेतना है। चेतना के अतिरिक्त अन्य सभी अनात्म पदार्थ आत्मा के साथ संयोग (च) उपयोगी विनिर्दिष्ट स्तत्र लक्षणमात्मनः । द्वि-विधो दर्शन-ज्ञान-प्रभेदेन जिनाधिपः । -योगदार-प्राभृत, श्लो० ६ । (छ) चैतन्य लक्षणो जीवो, यश्चैतद्विपरीतवान् । अजीवः स मताख्यातः पुण्यं सत्कर्म पुद्गलाः ॥ -षड्दर्शन समुच्चय, ४९ । (ज) चैतन्य स्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्तास्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिका दृष्ट्वांश्वायम् ॥ -प्रमाण नय तत्त्वालोक, ७.५५५६ ५. (अ) चेतन लक्षण आतमा, आतम सत्ता मांहि । सत्ता परिमित वस्तु है, भेद तिहूं मैं नांहि ॥ -समयसार-नाटक, मोक्षद्वार, ११ । (ब) चेतना लक्षणो जीवः चेतना च ज्ञानदर्शनोपयोगी। अनन्तपर्याय परिणामिक कर्तृत्व भोक्तृत्वादि लक्षणो जीवास्तिकायः ॥ -देवचन्द्र जी म० कृत नयचक्रसार १. यत्रात्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्रात्मा । -निशीथचूर्णि, ३३३२ । २. शान्तिजिनस्तवन, आनन्दधन ग्रन्थावली।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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