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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार १७१ स्वाभाविक वृत्ति है। वह जानना चाहता है कि आत्मा क्या है ? सभी भारतीय दार्शनिकों, साधकों एवं सन्तों ने अपने-अपने ढंग से इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है। इसी कारण विभिन्न दर्शनों में आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक मत-मतान्तर दृष्टिगत होते हैं। किसी ने आत्मा के विधायक स्वरूप पर बल दिया है तो किसी ने उसके निषेधात्मक पहलू पर । लेकिन कोई भी दार्शनिक आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में 'इदमित्थं' कहने का दावा नहीं कर सका। हां, यह बात दूसरी है कि जिसने जितने अंश में उसके स्वरूप का अनुभव किया, उसने उतने अंश में उसे व्यक्त करने का प्रयास किया। ___ अन्य दर्शनों की तुलना में जैनदर्शन में आत्मा के स्वरूप की चर्चा काफी विस्तार एवं गहराई से हुई है। जैनदर्शन में पदार्थ को आंकने की दो प्रमुख दृष्टियां हैं-निश्चय और व्यवहार। आत्म-स्वरूप की विवेचना भी इन दोनों दृष्टियों से की गई है। यही पद्धति हमें सन्त आनन्दघन के रहस्यवाद में भी सर्वत्र परिलक्षित होती है। जहां एक ओर, वे निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा को 'चैतन्य-मूरति' अर्थात् ज्ञाता-द्रष्टा कहते हैं वहीं दूसरी ओर व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा को कर्ता-भोक्ता भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने आत्मा के निषेधात्मक एवं अनिर्वचनीय स्वरूप की भी चर्चा की है। प्रात्मा __जैनदर्शन के अनुसार निरन्तर ज्ञानादि पर्यायों को जो प्राप्त होता है, वह आत्मा है । आचारांग में कहा है : “जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया।” अर्थात जो विज्ञाता है वही आत्मा है और जो आत्मा है वही विज्ञाता है। "आत्मा" शब्द की व्यत्पत्ति पर विचार करने से इसके स्वरूप का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार 'अतति इति आत्मा'-अर्थात् जो गमन करता है वह आत्मा है। तात्पर्य यह कि जो ज्ञान-दर्शन, सुख-दुःख आदि पर्यायों में सतत रमण करता है वह आत्मा है। दूसरे शब्दों में, जो जानता है, अनुभव करता १. आचारांग १।५।५ २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग २, पृ० १८८ । अतधातोर्गमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति-सततमवगच्छति उपयोग लक्षणत्वाद् इति आत्मा। -अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग २, ५० १८८ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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