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________________ १७० आनन्दघन का रहस्यवाद अन्तर्मानस में तीव्र जिज्ञासा का होना नितान्त अनिवार्य है। जिस साधक में जिज्ञासा का तत्त्व नहीं है, वह कदापि रहस्यवादी नहीं हो सकता। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आत्मतत्त्व के ज्ञान के लिए जिज्ञासा की पद्धति अपना कर आनन्दघन ने मनोवैज्ञानिक एवं रहस्यवादी दष्टि का परिचय दिया है। भगवतीसूत्र में निर्देश है कि गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से छत्तीस हजार प्रश्न किये थे। अतः यह सत्य है कि बिना जिज्ञासा के तत्त्वबोध नहीं हो सकता। वास्तव में, सन्त आनन्दधन ने तत्त्वबोध के लिए जिज्ञासा को आवश्यक मानकर एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित किया है। संक्षेप में, आत्मतत्त्व बोध के लिए प्रश्न-प्रति-प्रश्न, एवं शंका-समाधान की जो शैली आनन्दघन के रहस्यवादी दर्शन में दृष्टिगत होती है, वह पूर्णतः उनकी आगमिक दृष्टि की परिचायक है। आत्मा का स्वरूप आत्म-ज्ञान के लिए आत्म-जिज्ञासा को होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु आत्मा का लक्षण एवं उसके स्वरूप का सम्यक् बोध होना भी आवश्यक है। उपाध्याय यशोविजय ने भी कहा है कि जब तक आत्मा का लक्षण क्या है, इसका परिज्ञान न हो, तब तक गुणस्थानारोहण या आध्यात्मिक-विकास कैसे सम्भव हैं ? __ जैनदर्शन में आत्म-स्वरूप का विश्लेषण विधि, निषेध एवं अवाच्य तीनों रूपों में उपलब्ध होता है। आनन्दघन ने भी आत्मा के स्वरूप का विवेचन विधि और निषेध दोनों प्रकार से किया है। यहाँ तक कि उन्होंने उपनिषदों की भाँति 'नेति-नेति' कह कर आत्मा के स्वरूप को अनिर्वचनीय भी बताया है। वस्तुतः प्रत्येक जिज्ञासु साधक के अन्तर्मन में यह प्रश्न सहज उठता है कि आत्मा का स्वरूप क्या है ? उसका लक्षण क्या है और उसे कैसे जाना जा सकता है ? आत्म-ज्ञान की जिज्ञासा मानव की सहज एवं १. जिहां लगे आतम द्रव्य नुं, लक्षण नवि जाण्युं । तिहां लगे गुण ठाणुं भलं, केम आवे ताण्डे ॥ -सवासो गाथा नुं स्तवन, ढाल ३, २२ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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