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________________ १४४ आनन्दघन का रहस्यवाद बल दिया है। उपाध्याय यशोविजय ने भी इसी बात की ओर अंगुलि निर्देश करते हुए अध्यात्मसार में कहा है कि 'इस प्रकार शुद्ध नय का अवलम्बन लेने से आत्मा में एकत्व प्राप्त होता है, क्योंकि पूर्णवादी (परमार्थ-वादी) या निश्चयनयवादी आत्मा के अंशों (पर्यायों) की कल्पना नहीं करते। पर्याय जितनी जानते हैं, उतने से पूर्ण द्रव्य ज्ञात नहीं होता। केवल अंश ही प्रतीत होते हैं। स्थानांग आदि सूत्रों में ‘एगे आया' का जो कथन है, उसका आशय भी यही है।' इसके अतिरिक्त उन्होंने भी अंतरंग में निश्चय-दृष्टि को रखकर व्यवहार-दृष्टि का अनुसरण करने की चेतावनी दी है । इस सम्बन्ध में उनका कथन है : निश्चय दृष्टि चित्त धरी जी, पाले जे व्यवहार । पुण्यवंत ते पामशे जी, भव-समुद्र नो पार ॥२ जो साधक हृदय में निश्चय-दृष्टि धारण करके व्यवहार का पालन करता है, वही भाग्यशाली संसाररूप सागर से पार हो सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जो निश्चय और व्यवहारनय के सम्बन्ध में यहाँ तक कहा है कि व्यवहारनय निद्रा है तो निश्चय नय जागरण । अतः जो व्यवहार में जगता है, वह निश्चय नय से आँख मूंद लेता है और जो व्यवहार नय से स्वप्नावस्था में है, वह पारमार्थिक दृष्टि से जाग रहा है। ___ आनन्दघन की निश्चय-व्यवहार नय की दृष्टि से आत्म-तत्त्व की विवेचनाएँ अन्यत्र भी पाई जाती हैं। एक जगह उन्होंने कहा है : अचल अबाधित देव कुं, खेम खरीर लखंत । विवहारी घट बढ़ि कथा, निहचै शरम अनन्त ॥४ १. इति शुद्धनयात्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि । अंशादिकल्पनाऽप्यस्य, नष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥ एक आत्मेति सूत्रस्याऽप्ययमेवाऽशयो मतः ॥ -अध्यात्मसार, ३१। २. श्री सीमंधर स्वामी विनति रूप सवासो गाथा नुं स्तवन-उपाध्याय यशोविजय, ढाल ५, गाथा ५५ । ३. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जाम । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥ -मोक्खपाहुड़, गा० ३१ । ४. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३७ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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