SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्दघन की विवेचना-पद्धति १४३ दष्टि से आत्म-तत्त्व को देखता है, उसकी दृष्टि में आत्मा के अनन्त गुणपर्यायों की अपेक्षा से अनन्त भेद दृष्टिगत होते हैं। यहां सहज प्रश्न उठता है कि निश्चय और व्यवहार-दृष्टि में से किसे ग्रहण किया जाये अथवा किसका अवलम्बन लेने में आत्म-लाभ है ? निश्चय-व्यवहार के लाभालाभ की दृष्टि से आनन्दघन की ये पंक्तियाँ मननीय हैं : व्यवहारे लख दोहिलो, कांइ न आवे हाथ रे । . शुद्ध नय थापन सेवतां, नवि रहे दुविधा साथ रे॥' केवल व्यवहार नय का आश्रय लेने से आत्म-तत्त्व (परम-तत्त्व) की प्राप्ति दुर्लभ है, क्योंकि इसके द्वारा तत्त्वतः कुछ भी उपलब्धि नहीं होती, जबकि शुद्ध निश्चय नय की अभेद स्थापना करने से अर्थात् उसे ग्रहण करने पर शुद्धात्म-तत्त्व लक्ष्य को पाने में क र जन या द्वैतभाव नहीं रहता। अन्य शब्दों में निश्चय नय को अंतरंग में धारण कर आत्म-तत्त्व को देखने पर आत्मा और परमात्मा में किसी तरह का द्वैतभाव या भिन्नत्व नहीं रहता, प्रत्युत अद्वैत-अभेद रूप एक परमतत्त्व का अनुभव होता है। यह सच है कि निश्चय-दृष्टि को लक्ष्य में न रखकर मात्र व्यवहार नय का अवलम्बन लेने पर साधक विविध पर्यायों और विकल्पों में इतना भटक जाता है कि मूल लल्य छूट जाता है। ऐसी स्थिति में शुद्ध आत्मतत्त्व रूप अमृत-फल का सारभूत रस उसे प्राप्त नहीं होता, उसके पल्ले केवल ऊपर के छिलके ही पड़ते हैं। इसीलिए कदाचित् आनन्दधन जैसे अध्यात्मयोगी को यह कहना पड़ा कि 'व्यवहारे लख दोहिलो'--'व्यवहार द्वारा शुद्धात्मा तत्त्व को पाना अति दुर्लभ है। इतना ही नहीं, केवल व्यवहारनय पर आश्रित रहने वाले साधकों पर करारी चोट करते हुए 'कांइ न आवें हाथ रे' 'कहकर यह सिद्ध किया है कि साधक यदि निश्चयदृष्टि को लक्ष्य में न रखकर मात्र व्यवहार-दृष्टि को ही सब कुछ मानकर अनेकविध कठोर साधना या बाह्य क्रियाकाण्ड करता है, फिर भी परिणामतः उसका वास्तविक आत्म-सिद्धि का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द की भांति आनन्दघन ने भी 'शुद्ध नय थापन सेवतां' 'कहकर शुद्ध निश्चय नय को ग्रहण करने पर १. आनन्दघन ग्रन्थावली, अरजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy