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________________ आनन्दघन की विवेचना-पद्धति १३१ हैं । आनन्दघन ने भी मुख्यरूप से आत्मा पर तीन ही भंग घटित किये हैं। इस सम्बन्ध में उनका निम्नलिखित पद द्रष्टव्य है : है, नाहीं, है वचन अगोचर, नय प्रमाण सतभंगी । निरपखि होई लखै कोई विरला, क्या देखे मतजंगी ॥ ' अर्थात् ' है ' 'नहीं है' और 'वचन से जो कहा नहीं जा सकता' ('अवक्तव्य है' ) इसे सप्तभंगी न्याय की भाषा में 'स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्यम्' कहा जाता है । वचन के ये तीन मूल प्रकार हैं, जिनका प्रयोग उक्त पद में किया गया है और इन्हीं के ही चार उत्तर भेद'स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अस्ति अवक्तव्यम्', 'स्यान्नास्ति अवक्तव्यम्' और 'स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्यम्' मिलने से सप्तभंगी बनती है । विमल दास ने 'सप्तभंगी तरंगिणी' में इसका विस्तृत विवेचन किया है । इस प्रकार, कहा जा सकता है कि स्याद्वाद का उद्गम स्थल अनेकान्तवस्तु है और सप्तभंगी उस अनेकान्त-वस्तु को व्यक्त करने की एक विश्लेषणात्मक प्रक्रिया है । यह अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में प्रतीत होनेवाले विरोधी धर्मयुगलों का विरोध दूर करती है । जो वस्तु सापेक्ष दृष्टि से सत् है अर्थात् उसमें किन्हीं गुण-धर्मों की उपस्थिति है, वही अन्य अपेक्षा से असत् भी है अर्थात् किन्हीं गुण-धर्मों का उसमें अभाव है, किन्तु जिस रूप में वह सत् है उस रूप में वह असत् नहीं है । आनन्दघन ने भी इस पद्धति का अवलम्ब लेते हुए आत्म-तत्त्व की विवेचना के सन्दर्भ में सत्-असत् की चर्चा की है। उनके अनुसार आत्मा में सत्-पक्ष और असत्पक्ष दोनों हैं । स्व द्रव्य की अपेक्षा इसमें अस्ति पक्ष है और पर द्रव्य की अपेक्षा नास्ति पक्ष । निज ज्ञानादि गुण-पर्याय की परिणति, क्षायिक आदि भाव तथा निज चेतन स्वभाव की अपेक्षा से आत्मा में सत् पक्ष है और जड़ पदार्थ के गुण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि आत्मा में न होने की अपेक्षा आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५९ । चेतन सकल वियापक होई । सत् असत् गुण पर जाय परिणति, भाउ सुभाउ गति जोई ॥ स्व पर रूप वस्तु की सत्ता, सत्ता एक अखण्ड अबाधित, अन्वय अरु व्यतिरेक हेतु को, आरोपित सब धर्म और है, १. २. सीझे एक नहीं दोई । यह सिद्धांत पच्छ जोई ॥ समझि रूप भ्रम खोई । आनन्दघन तत सोई ॥ - वही, पद ८२ ॥
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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