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________________ १३० आनन्दघन का रहस्यवाद अव्यय है और यह अव्यय अनेकान्त का द्योतक है। इस कारण स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है।' आचार्य हेमचन्द्र ने भी 'स्यात्' शब्द को अनेकान्तबोधक माना है। यद्यपि दोनों में कोई विशेष पार्थक्य प्रतीत नहीं होता, तथापि सूक्ष्म-दृष्टि से देखने पर दोनों में प्रतिपाद्यप्रतिपादक सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। आचार्य अकलंक के अनुसार 'अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा द्वारा प्रतिपादित करनेवाली पद्धति ही स्याद्वाद है।३ स्याद्वाद पद्धति के कथन का आधार है सप्तभंगी। जैनदर्शन में सप्तभंगी का अभिप्राय भाषायी अभिव्यक्ति के सात प्रकारों से है। स्याद्वाद जहां वस्तु का विश्लेषण करता है वहीं सप्तभंगी वस्तु के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म की विश्लेषण करने की प्रक्रिया को प्रस्तुत करती है। इसे 'सप्तभंगी न्याय' भी कहा जाता है। सप्तभंगी क्या है ? इसका समुचित उत्तर मल्लिषेण ने दिया है : सप्तभिः प्रकारैः वचनविन्यासः सप्तभंगीतिगीयते । 'अर्थात् वस्तु के स्वरूप कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाना ही 'सप्तभंगी' कहा जाता है। आचार्य 'अकलंक के अनुसार प्रश्न उठने पर एक वस्तु में अविरोध भाव से एक धर्म विषयक जो विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभंगी कहते हैं।" ___ सरल शब्दों में, सप्त यानी सात और भंग अर्थात् विकल्प, प्रकार या भेद । किसी भी एक वस्तु के, किसी भी एक धर्म के विषय में सात प्रकार के वचन-प्रयोग से ही विवेचन सम्भव है। सात प्रकार के वचन-प्रयोग के अतिरिक्त आठवाँ वचन प्रकार का प्रयोग नहीं हो सकता। ये सप्तभंग प्रत्येक धर्म पर घटित किये जा सकते हैं। सप्तभंगी के मूलभंग तीन १. स्यादित्यव्ययमनेकान्त द्योतक, ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः । -स्याद्वाद मंजरी, ५ । २. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, कारिका, २८ । ३. अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः । -लघीयस्त्रय टीका ६२ अकलांक । ४. स्याद्वाद भंजरी, कारिका २३ टीका । ५. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्य विरोधेन विधि-प्रतिषेध-विकल्पना सप्तभंगी। -आ० अकलंक देव, तत्त्वार्थराजवातिक सूत्र, ११५ टीका ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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