SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समान ही है । तुल्यता एकता तथा वृद्धि जब एक साथ मिलती है तव समता स्थिर होती है। स्थिर समता अनन्त द्रव्यो की समानता, गुणो की एकता और पर्यायो की तुल्यता के ज्ञान के ऊपर अवलम्बित है, उससे समता के इच्छुक जीवो को परमेष्ठि नमस्कार द्वारा अनुक्रमश द्रव्य से वृद्धि, गुण से एकता और पर्याय से तुल्यता के ध्यान का अनुभव करना चाहिये । जब ध्यान में परमेष्ठियो के शुद्ध आत्म-द्रव्य के साथ स्वयं का आत्म-द्रव्य मिलता है तब वृद्धि का अनुभव होता है । उनके गुणो के साथ जब स्वय के गुण मिलते है तब एकता का अनुभव सम्भव है । इस प्रकार तुल्यता, एकता और वृद्धि का अनुभव विषमता का नाश करता है और समता का प्रादुर्भाव करता है। इस परमेष्ठि नमस्कार मे नित्य एकता होने का अभ्यास क्रमश. प्रकर्ष को प्राप्त कर ध्यान को ध्येय रूप बनाने वाला होता है । आत्मा परमात्मस्वरूप होता है तथा व्यष्टि स्वय समष्टि रूप धारण कर अन्य मे परमेष्ठि स्वरूप बन जाता है । कहा है कि निज स्वरूप उपयोग थी, फिरी चलित जो थाय, तो अरिहत परमातमा, सिद्ध प्रभु सुख दाय ।।१।। तिनका आत्म सरूपका, अवलोकन करो सार, द्रव्य गुण पज्जव तेहना, चिन्तवो चित्त मझार ।।२।। निर्मल गुण चिन्तन करत निर्मल होय उपयोग, तब फिरी निज स्वरूप का ध्यान करोथिर जोग ।।३।। जे सरूप अरिहत को, सिद्ध सरूप वली जेह, तेहवो आतम रूप छे, तिणमे नहिं संदेह ।।४।। चेतन द्रव्य साधर्म्यता, तेणे करी एक सरूप, भेदभाव इण मे नहीं, एहवो चेतन रूप ॥५॥
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy