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________________ ५४ वर्णित है, यह युक्ति तथा अनुभव से भी कहा गया है । दुष्कृत गर्दा तथा सुकृतानुमोदन पदार्थवृत्ति एव कृतज्ञताभाव की उत्तेजक होने से अन्तःकरण की शुद्धि करती है, यह युक्ति है तथा शुद्ध अन्त करण मे ही परमात्म स्वरूप का प्रतिबिम्ब पड़ सकता है यह सर्वयोगी पुरुषो का भी अनुभव है। समुद्र अथवा सरोवर जव निस्तरग होता है तभी उसमे आकाशादि का प्रतिविम्ब पड़ सकता है उसी तरह अन्त करण रूपी समुद्र अथवा सरोवर जबसकल्प-विकल्प रूपी तरगो से रहित बनता है तभी उसमे अरिहतादि चारो का तथा शुद्धात्म का प्रतिविम्ब पडता है। अन्त करण को निस्तरग तथा निर्विकल्प बनाने वाली दुष्कृत-गर्दा तथा सुकृतानुमोदन का शुभ परिणाम है एव उसमें शुद्धात्मा को प्रतिबिम्वित करने वाले अरिहतादि चारो का स्मरण तथा शरण है। स्मरण ध्यानादि से सभूत है तथा शरणगमन आज्ञापालन के अध्यवसाय से होता है । आज्ञा-पालन का अध्यवसाय निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि को देने वाला है । निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि का अर्थ है शुद्धात्मा के साथ एकता की अनुभूति । इसे स्वानुभूति कहते है। इस प्रकार परम्परा से दुष्कृत-गर्दा तथा सुकृतानुमोदन तथा साक्षात् श्री अरिहत आदि चार की शरणगमन निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि-स्वरूपानुभूति का कारण बनता है । अत. शास्त्र इन तीनो को जीव का तथाभव्यत्व अर्थात् मुक्ति गमन योग्यत्व परिपक्व करने वाल कहते हैं यह यथार्थ है । दुर्लभ मानव जीवन मे इन तीनो साधनो का भव्यत्वपरिपाक के उपाय के रूप मे आश्रय लेना ही प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा का परम कर्तव्य है।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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