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________________ ४५ अरिहत की शरण, सिद्ध की शरण, साधु की शरण एवं केवली प्रजप्त धर्म की शरण अरिहतादि चारो की लोकोत्तमता के ज्ञान पर आधारित है । इन चारों की लोकोत्तमता इन चारो की मगलमयता पर आधारित है। उनकी मगलमयता उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर आधारित है एव ज्ञान, दर्शन, चारित्र को मगलमयता राग, द्वप एव मोह का प्रतिकार करने के सामर्थ्य मे निहित है। योग्य की शरण से योग्यता का विकास जीव को सबसे अधिक राग स्वयं पर होता है। उस राग के कारण स्वय मे निहित अनन्तानन्त दोपो का दर्शन नही होता । स्वय का राग दूसरो के प्रति द्वष का आविर्भाव करता है इसी दोप के प्रभाव से गुरगदर्शन नही होता । स्वदोपदर्शन एव परगुणदर्शन नही होने से मोह का उदय होता है, मोह का उदय होने से बुद्धि तिरोहित होती है एव यह वुद्धि का प्रावरण शरणीय की शरण स्वीकार करने मे अन्तरायभूत होता है। योग्य की शरण स्वीकार नही करने से अयोग्यता को नियन्त्रित नही किया जा सकता । अपनी अयोग्यता कर्मवन्धन के कारणो के प्रति उदासीन करवाती है एव कर्मक्षय के कारणो के प्रयोग मे प्रतिवन्धक बनती है । कर्मबन्धन के कारणो से पराड मुख बनने हेतु एव कर्मक्षय के कारणो के सम्मुख होने हेतु योग्यता विकसित करनी चाहिए । योग्य की शरण लेने से योग्यता विकसित होती है । योग्य की शरण लेने की योग्यता स्वदोपदर्शन एव परगुणग्रहण से उत्पन्न होती है । राग द्वप की कमी होने से परगुरणदर्शन एव
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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