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________________ ४४ ज्ञान गुण की पराकाष्ठा 'नमो' भाव मे है, दर्णन गुण की पराकाष्ठा 'अहं' भाव मे है एव चारित्र गुण की पराकाष्ठा 'शरण' भाव मे है। ज्ञान गुग मगल प है, दर्शन गुप लोकोत्तम स्वरूप है एव चारित्र गुण शरणागति पर है। इस प्रकार रत्नत्रयी का विकास प्रात्मा की मुक्ति-गमन योग्यता का परिपाक करता है एव ससार भ्रमगा की योग्यता का नाश करता है। स्वदोप दर्शन एवं परगुण दर्शन चार वस्तुएँ मगल है, चार वस्तुएँ लोक मे उत्तम है एवं चार वस्तुएं शरण ग्रहण करने योग्य है। मगल की भावना ज्ञान-स्वरूप है, उत्तम की भावना दर्शन स्वस्प है एव शरण की भावना चारित्र स्वरूप है । ज्ञान से राग दोप जाता है, दर्शन से द्वप दाप जाता है एव चारित्र से मोह दोप जाता है। राग जाने से स्वय के दोष दिखते है, द्वप जाने में दूसरो के गुण दिखते हैं एव मोह जाने से शरणभूत आज्ञा का स्वरूप जाना जाता है । स्वदोप दर्शन दोप की गर्दा करवाता है, परगुण दर्शन दूसरो की अनुमोदना करवाता है एव आज्ञा का स्वरूप समझने से आज्ञा की शरण मे रहने की वृत्ति पैदा होती है। __गुणवान की आज्ञा ही स्वीकार करने योग्य है । दोष जाने से ही गुण प्रकट होते हैं । अाज्ञा का पाराधन करने से ही दोष जाता है। अत मोक्ष का हेतु आज्ञा का पाराधन होता है एव आज्ञा की विराधना ही ससार का कारण होती है। स्वमति-कल्पना का मोह आज्ञा पालन के अध्यवसाय से ही जाता है एव उसके जाने से शरण स्वीकार करने हेतु वल पैदा होता है।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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