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________________ १८ विनय, भक्ति, श्रद्धा, रुचि, श्रार्द्रता, निरभिमानता आदि नमस्कार भाव के ही विभिन्न पर्यायवाची शब्द है । प्रत नमस्कार भाव ही धर्म का मूल, द्वार, पीठ, निधान, श्राधार एव पात्र है । अमूर्त एव मूर्त के मध्य एक मात्र पुल, सेतु श्रथवा सधि नमस्कार ही है । नमस्कार में सर्व संग्रह नवकार मे चौदह नकार है । ( प्राकृत भाषा मे 'न' एव 'ण' दोनो विकल्प से श्राते हैं ) ये नकार चौदहपूर्वों को बताते है एव यह नवकार चौदहपूर्वरूपी श्रुतज्ञान का सार है ऐसी प्रतीति करवाते है | नमस्कार मे बारह अकार है, वे बारह श्रङ्गो को बताते है । नमस्कार मे नौ रणकार है । वे नवनिधियो को बताते है । नमस्कार के पाँच नकार पचज्ञान को, आठ सकार अष्ट सिद्धियो को, नवमकार चार मगल एव महाव्रतो को, तीन सकार तीनलोक को, तीन हकार आदि मध्य एव अन्त्य मंगल को, दो चकार देश - चारित्र एव सर्व चारित्र को दो ककार दो प्रकार के घाती प्रघाती कर्मों को, पाँच पकार पाँच परमेष्ठि को तीन रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूपी तीन रत्नो को, तीन मकार तीन योगो एव उनके विग्रह को, दो गकार गुरु एव परमगुरु याने दो गुरुत्री को, दो एकार सप्तम स्वर होने से सात राज ऊर्ध्व एव सात राज अधो अर्थात् चौदह राजलोक को सूचित करते हैं । मूल मन्त्र के चौबीस गुरु अक्षर चौवीस तीर्थंकरो रूपी परम गुरुत्री एव ग्यारह लघु अक्षर वर्तमान तीर्थपति के ग्यारह गरणघर भगवान् स्पी गुरुओ को भी बताने वाले हैं । -
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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