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________________ महान् मन्त्र गिना जाता है एव महान् से महान् असाध्य दुस्साध्य कार्य भी इससे सिद्ध होते देखे जाते हैं। उत्साहान्निश्चयात् धैर्यात् , संतोषात्तत्त्वदर्शनात् । मुनेजेनपदत्यागात् , षड्भिोगः प्रसिध्यति ॥ दूसरे योगो की भांति मन्त्र योग की सिद्धि भी उत्साह से, निश्चय से, धैर्य से, सन्तोप से, तत्त्वदर्शन से एव लोक सम्पर्क के त्याग से हो सकती है। अमूर्त एवं मूर्त के मध्य का सेतु 'नमो' धर्मवृक्ष का मूल है, धर्मनगर का द्वार है, धर्मप्रासाद का स्तम्भ है, धर्मरत्न का स्थान है, धर्म-जगत का आधार है एव है धर्मरस का पात्र । नमस्कार रूपी मूल विना धर्मवृक्ष सूख जाता है, नमस्काररूपी द्वार बिना धर्मनगर मे प्रवेश अशक्य है। नमस्काररूपी स्तम्भ के विना धर्म-प्रासाद टिक नहीं सकता है, नमस्काररूपी धारक बिना धर्मरत्नो का रक्षरण होता नही, नमस्काररूपी आधार विना धर्मजगत निराधार है । नमस्काररूपी पात्र बिना धर्मरस टिक नही सकता एव धर्मरस का स्वाद चखा नही जा सकता। ___ "विनय-मूलो धम्मो'-धर्म का मूल विनय है । नमस्कार विनय का ही एक प्रकार है। गुणानुराग धर्मद्वार है एव नमस्कार गुणानुराग की क्रिया है । श्रद्धा धर्ममहल का स्तम्भ है, नमस्कार इसी श्रद्धा एव रुचि का दूसरा नाम है । मूलगुण एव उत्तरगुण रत्न है, नमस्कार उनका मूल्याकन है । चतुर्विध सघ एव मार्गानुसारी जीव ही धर्मरूपी जगत है, उसका आधार नमस्कार भाव है। समता भाव, वैराग्य भाव एव उपशम भाव धर्म का रस है एव नमस्कार ही उस रसास्वादन का पात्र अथवा आधार है।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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