SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० एकाग्रता से अर्थविचार सहित जप करने वाले के समस्त कष्ट दूर होते है। 'मननात् त्रायते यस्मात् तस्मान्मंत्रः प्रकीर्तितः ।' जिसके मनन से रक्षा होती है वह मत्र है । मनन अर्थात् चिन्तन मन का धर्म है । मन का लय होने से चिन्ताराशि का त्याग होता है। चिन्ताराशि के त्याग से निश्चितता रूपी समाधि प्राप्त होती है । मन जब सभी विषयो की चिन्ता से रहित होता है तथा आत्मतत्त्व मे विलीन होता है तब वह समाधि प्राप्त करता है। 'नवकार के प्रथम दो पदो मे मुख्य रूप से सामर्थ्य योग को नमस्कार है क्यो श्री अरिहत तथा सिद्धो मे अनन्त सामर्थ्य-वीर्य -प्रकट हुआ है। बाद के तीन पदो मे प्रधान रूप से शास्त्रयोग को नमस्कार है क्योकि प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु मे वचनानुष्ठान निहित है । अन्तिम चार पदो मे इच्छायोग को नमस्कार है क्योकि उसमे नमस्कार का फल वर्णित है । फल श्रवण से नमस्कार मे प्रवृत्त होने की इच्छा होती है। श्री नवपदो मे स्थित भिन्न २ प्रकार का नमस्कार यदि ध्यान मे रख कर किया जाय तो वह तुरन्त सजीव एव प्राणवान् बनता है। - ज्ञानपूर्वक, श्रद्धापूर्वक एव लक्ष्यपूर्वक प्रमाद छोड कर यदि नमस्कार महामत्र का पाराधन किया जाय तो वह अचिन्त्य चिन्तामणि एव अपूर्ण कल्पवृक्ष के समान फलप्रद बनता है चिरकाल का तप, बहुत भी श्रत एव उत्कृष्ट भी चारित्र यदि भक्ति शून्य हो तो वे अहंकार के पोषक बन अधोगति- का सर्जन करते हैं । भक्ति का उदय होने से वे सब कृतकृत्य होते हैं । मत्र के ध्यान से एव जाप से बारवार प्रभु के नाम का एव
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy