SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० अरुचि रुक जाती है। पाप का परिवर्तन एवं धर्म का सेवन अप्रमत्तता से होता है । वह ग्रात्मा चरित्र एव धर्म रूपी महा गजा के राज्य की विश्वासपात्र सेविका वनती है एव मोक्ष साम्राज्य के सुख का अनुभव करती है। नवकार मै 'सम्यक् जान,' 'सम्यक् दर्शन' एव 'सम्यकचारित्र' इन तीनो गुणो की आराधना निहित होने से दुष्कृत गर्दा, मुकृत की अनुमोदना एव प्रभु आज्ञा का पालन प्रतिदिन बढता जाता है जिसमे मुक्ति मुख का अधिकारी वना जाता है। निर्वेद एवं संवेग रस नमस्कार मे निर्वेद एवं सवेग रस का पोपण होता है। निगोद आदि मे स्थित जीवो के दुख का विचार कर चित्त में ससार के प्रति उद्वेग धारण करना ही निर्वेदरस है, एव सिद्ध गति मे स्थित सिद्ध भगवान् के मुख को देखकर आनन्द का अनुभव होना ही सवेगरस है । दुखी जीवो की दया एव सुखी जीदो के प्रमोद द्वारा तीनो दोष राग द्वेप एव मोह का निग्रह होता है। ___सभी दुखी आत्माओ के दु ख से भी अधिक नरक के नारकीय जीव का दुःख बढ जाता है। उससे भी अधिक दु ख निगोद मे स्थित है । सभी सुखी आत्माओ के सुख से अधिक अनुत्तर के देवो का सुख चढ जाता है, उससे भी एक सिद्ध की आत्मा का सुख अनन्त गुण अधिक होता है। निगोद का एक जीव जो दुःख भोग करता है, उस दुख की निगोद के अतिरिक्त सभी दुखी जीवो के एक भी मूल दुख की समता नही कर सकता है । जीव का देव एव मनुष्य के त्रिकाल सुख के अनन्त गुणाकृत अथवा वर्गकृत रूप से भी सिद्ध जीव का एक सुख बहुत अधिक होता है।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy