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________________ जाता है वे पंच परमेष्ठि भगवान् सांसारिक सुख को तृणवत् समझ उसका त्याग करने वाले हैं एव मोक्ष सुख को प्राप्त करने हेतु परम पुरुषार्थ करने वाले हैं । नमस्कार जसे सासारिक सुख को वासना एव तृष्णा का त्याग करवाता है वैसे ही मोक्ष सुख की अभिलाषा एव उसके लिए सर्व प्रकार के प्रयत्न करना सिखाता हैं। नमस्कार पाप में पाप-बुद्धि एव धर्म मे धर्म बुद्धि सिखाने वाला होने से मिथ्यात्वशल्य नाम के पाप स्थानक को उच्छेदित कर देता है एव शुद्ध देव, गुरु तथा धर्म के ऊपर प्रेम जाग्रत कर सम्यकत्व रत्न को निर्मल बनाता है। नमस्कार से सांसारिक विरक्ति जागती है, जो लोभ, कपाय को नष्ट भ्रष्ट कर देती है एव नमस्कार से भगवद् बहुमान जाग्रत होता है जो मिथ्यात्वगल्य को दूर कर देता है । राग-दोष का प्रतिकार ज्ञान-गुण के द्वारा होता है ज्ञानी पुरुष निष्पक्ष होने से स्वय मे निहित दुष्कृत्यो को देख सक्ता है निरन्तर उसकी निन्दा गर्दा करता है एव उससे स्वय को प्रात्मा को दुष्कृत्यो से उवार लेता है। द्वेष-दोष का प्रतिकार दर्शन गुण द्वारा होता है । सम्यक दर्शन गुण को धारण करने वाला पुण्यात्मा नमस्कार मे स्थित अरिहतादि गुणो को, सत्कर्मो को एव विश्व-व्यापी उपकारो को देख सकता है । अत्त. उसके विपय मे आनन्द को धारण करता है । सत्कर्मो एव गुणो की अनुमोदना तथा प्रशसा द्वारा स्वय की आत्मा को सन्मार्गाभिमुख कर सकता है । __ ज्ञान-दर्शन गुण के साथ जब चारित्र गुण मिल जाता है तब मोह दोष का समूल नाश हो जाता है। मोह दूर हो जाने से पाप मे निष्पापिता एव धर्मो मे अकर्तव्यता की बुद्धि दूर हो जाती है। उसके दूर हो जाने से पाप मे प्रवर्तन एव धर्म मे प्रमाद एव
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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