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________________ परापकाररहित एव परोपकारसहित होने की बुद्धि से जो नमस्कार किया जाता है वह भावनमस्कार है। वह भावनमस्कार पाप का प्रणाशक एव मंगलवर्द्धक बनता है। भावनमस्कार मे दुष्कृत-गर्दा एव सुकृतानुमोदना निहित है एवं इन दोनो से युक्त होकर आत्मज्ञानी पुरुषो की शरणागति भी निहित है। प्रात्मज्ञानी पुरुषो की शरणागति आत्मज्ञान को सुलभ बनाती है। श्री नमस्कार मत्र मे आत्मज्ञान एव कर्म विज्ञान दोनो एक ही साथ निहित होने से उसमे सर्वमत्रशिरोमरिणता निहित है। श्री नवकार मंत्र से पाप का प्रायश्चित होता है एव आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। इससे उस एक ही मत्र मे आत्मकल्याण की सिद्धि करवाने वाले सभी अनुष्ठानो का सार आ जाता है। आधिकारिकता एवं योग्यता श्री नमस्कार मत्र का जाप एव उसको अर्थभावना सभी अन्तरायो का निवारण करने वाली होती है एव आत्मज्ञान का कारण बनती है। अत. पापभीरु एवं आत्मार्थी सभी भव्य प्रात्माओ को उसका निरन्तर स्मरण आनन्दप्रदायक होता है तथा उसके जाप करने वाले एव अर्थभावना करने वाले को सदैव के लिए निर्भय एव निश्चित बनाता है । श्री नमस्कार मत्र के जाप के लिए तथा उसकी अर्थभावना के लिए जो योग्यता चाहिए वह निम्न गुणो के अभ्यास से आती है। १. भद्रिक परिणति , २. विशेष निपुरणमति
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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