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________________ २६ समीचीन धर्मशास्त्र [ श्र० १ के अतिरिक्त सम्यक्त्व तथा निर्मोह और 'सत्ज्ञान' को ' तथामति' नाम भी दिया गया है । साथ ही अपनी स्तुतिविद्या ( जिनशतक ) में प्रन्थकारमहोदयने सद्द्दष्टिके लिये 'सुश्रद्धा' शब्दका तथा स्वयम्भुस्तोत्र में सद्वृत्त के लिये 'उपेक्षा' शब्दका भी प्रयोग किया है और इसलिये अपने अपने वर्गानुसार एक ही अर्थके वाचक प्रत्येक वर्गके इन शब्दोंको समझना चाहिये । यहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको जो 'धर्म' कहा गया है वह जीवात्माके धर्मका त्रिकालाबाधित सामान्य लक्षरण अथवा उसका मूलस्वरूप है। इसीको 'रत्नत्रय' धर्म भी कहते हैं, जिसका उल्लेख स्वयं स्वामी समन्तभद्रने कारिका नं०१३ में 'रत्नत्रयपवित्रिते' पदके द्वारा किया है, और स्वयम्भू स्तोत्रकी कारिका ८४ में भी 'रत्नत्रयातिशयतेजसि पदके द्वारा जिसका उल्लेख है। ये ही वे तीन न हैं जिनके स्वरूप - प्रतिपादनकी दृष्टि से आधारभूत अथवा रक्षणोपायभूत होनेके कारण इस ग्रन्थ को 'रत्नकरण्ड' ( रत्नोंका पिटारा ) नाम दिया गया जान पड़ता है । अस्तु धर्मका यह लक्षण धर्माधिकारी आप्तपुरुषों (तीर्थंकरादिकों) के द्वारा प्रतिपादित हुआ है, इससे स्पष्ट है कि वह प्राचीन है, और इस तरह स्वामीजीने उसके विषय में अपने कर्तृत्वका निषेध किया है । जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक चारित्रको 'धर्म' कहा गया है तब यह स्पष्ट है कि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र 'धर्म' हैं - पापके मूलरूप हैं । इनके लिये ग्रन्थ में देखो, कारिका ३२, ३४; ४४ ॥ 'सुश्रद्धा मम ते मते' इत्यादि पद्य नं० ११४ * मोहरूपो रिपुः पापः कषायभटसाधनः । दृष्टि-संविदुपेक्षास्त्रस्त्वया धीर ! पराजितः ।। ६० ।।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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