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________________ भाष्यके निर्माणकी कथा है कि-"पाखण्डिनामुपदेशेन संगत्या च मोहन मिथ्यात्वमिति पाखण्डिमोहनं गुरुमूढतेत्यर्थः' अर्थात्-पाखण्डियोंके उपदेशसे और उनकी संगतिसे जो मोहन-मिथ्यात्व होता है उसे 'पाखण्डिमोहन' कहते हैं, जिसका आशय गुरुमूढता का है। परन्तु इस अर्थका जी ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ कोई मेल नहीं बैठता । अस्तु । ___ अपनी उक्त धारणाके अनुसार ही मैंने प्रकृत ग्रन्थका एक अच्छा मूलानुगामी प्रामाणिक तथा उपयोगी भाष्य लिखनेका संकल्प किया था और सन् १६३६ में 'समाधि-तंत्र' को प्रकाशित करते हुए उसके साथमें वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमालामें प्रकाशित होनेवाले ग्रन्थों में उसकी भी विज्ञप्ति कर दी थी; परन्तु वीरसेवामन्दिरमें उत्तरोत्तर कार्यका भार इतना बढ़ा कि मैं बराबर अनवकाशसे घिरा रहने लगा और इसलिये भाष्यका संकल्पित काय जो बहु-परिश्रम-साध्य होने के साथ-साथ चित्तकी स्थिरता और निराकुलताकी खास अपेक्षा रखता है, बराबर टलता रहा। उसे इस तरह अनिश्चित कालके लिये टलता देखकर मुझे बड़ा खेर होता था और इसलिये मैंने अपनी ६५वीं वर्षगांठके दिन---- मँगसिर सुदी एकादशी वि० संवत् १६६८ को-यह दृढ प्रतिज्ञा की कि मैं अगली वर्षगाँठ तक स्वामी समन्तभद्रके किसी भी पद-वाक्यका अनुवादादि कार्य प्रतिदिन अवश्य किया करूँगाचाहे वह कितने ही थोड़े परिमाणमें क्यों न हो । और इस प्रतिज्ञा के अनुसार उसी दिन (ता. २६ नवम्बर सन् १६४१ शनिवारको ) इस धमशास्त्रका नये सिरेसे अनुवाद प्रारम्भ कर दिया, जो सामान्यतः १ मई सन् १६४२ को पूरा हो गया। इसके बाद स्वयम्भू-स्तोत्रके अनुवादको लिया गया और वह भी कोई छह ॐ देखो, सिद्धान्तशास्त्री पं० गौरीलाल-द्वारा अनुवादित और सम्पादित रत्नकरण्डश्रावकाचार ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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