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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र है वे वस्तुतः पाखण्डी ( पापके खण्डनमें प्रवृत्त होनेवाले तपस्वी साधु ) नहीं हैं, उन्हें पाखंडी समझकर अथवा साधु-गुरुकी बुद्धिसे उनका जो आदर सत्कार करना है उसे 'पाखंडिमूढ' कहते हैं । यहाँ 'पाखण्डी' शब्द का प्रयोग यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे ( मिथ्याष्टि) साधु-जैसे अर्थमें लिया जाय, जैसा कि कुछ अनुवादकोंने लिया है, तो अर्थका अनर्थ होजाय और 'पाषण्डिमोहनम्' पद में पड़ा हुआ 'पाखण्डिन्' शब्द अनर्थक और असम्बद्ध ( Nonscnsical ) ठहरे। क्योंकि इस पदका अर्थ है पाखण्डियोंके विपयमें मृढ होना अर्थात् पाखंडीके वास्तविक स्वरूपको न समझकर अपाखण्डियों अथवा पाखंड्याभासोंको पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप आदर-सत्कारका व्यवहार करना। इस पदका विन्यास ग्रन्थमं पहलेसे प्रयुक्त 'देवता-मूढम्' पदके समान ही है, जिसका श्राशय है कि जो ‘देवता नहीं हैं-राग-द्वेपस मलीन देवताभास हैं-उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना। ऐसी हालत में 'पाखण्डिन' शब्द का अर्थ 'धूर्त' जैसा करनेपर इस पदका ऐसा अर्थ हो जाता है कि 'धूतोक विषयमें मूढ होना अर्थात जो धूर्त नहीं हैं उन्हें धूत समझना और वैसा समझकर उनके साथ आदर-सत्कारका व्यवहार करना और यह अर्थ किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता। इसीसे एक विद्वान्को खींच-तान करके उस पदका यह अर्थ भी करना पड़ा * पाखण्डीका वास्तविक स्वरूप वही है जिसे ग्रन्थकारमहोदयने 'तपस्वी' के निम्न लक्षणमें समाविष्ट किया है। ऐसे ही तपस्वी पापोंका खण्डन करनेमें समर्थ होते हैं विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरत्न(क्तस्तस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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