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________________ उद्देश्य का अपलोप श्रादि । मिलाकर पढ़नेसे विवाह विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है और उसकी अनेक समस्याएँ खुदबखद (स्वयमेव) हल होजाती है। इस उदाहरणसे वे सब लोग बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते है जो प्रचलित रीति-रिवाजोंको ब्रह्म-वाक्य तथा प्राप्तवचन समझे हुए है, अथवा जो रूढ़ियों के इतने भक्त है कि उन्हें गणितशास्त्रके नियमों की तरह अटल सिद्धांत समभाते हैं और इसलिये उनमें ज़रा भी फेरफार करना जिन्हेंरुचिकर नहीं होता; जो ऐसा करनेको धर्म के विरुद्ध चलना और जिनेन्द्रभगवानकी आज्ञका उल्लङ्घन करना मान बैठे हैं, जिन्हें विवाहमें कुछ संख्या प्रमाण गांत्रोंके न बचाने तथा अपने वर्णसे भिन्न वर्ण के साथ शादीकरनेसे धर्म के डबजाने का भय लगाहुश्रा है:इससेभीअधिक जो एक ही धर्म और एक ही प्राचारके मानने तथा पालनेवाली अग्रवाल, खण्डेलवाल आदि समान जातियों में भी परस्पर रोटी बेटी व्यवहार एक करने को अनुचित समझते हैं-पतिक अथवा पतनकी शङ्कासे जिनका हृदय सन्तान है-और जो अपनी एक जातिमें भोपाठ आठ गोत्रों तकका टालनेके चकरमें पढ़े हुए है। ऐसे लोगों को वसदेवजीका उक्त उदाहरण और उसके साथ विवाहसम्बंधीवर्तमान रीति-रिवाजोंका मीलान बतलायगा कि साथ साथ उसे सम्पूर्ण विवाह-विधानों में सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है और पिछले दोनों पोंमें, जो भरत चक्रवर्ती की ओर से कहे गये पद्य हैं, यह सचित किया गया है कि युगकी श्रादिमें राजा अकम्पन-द्वारा इस विवाह विधि (स्वयंवर) का सबसे पहले अनुष्ठान होने पर भरत चक्रवर्ती ने उसका अभिनंदन किया था और उन लोगों को सत्पुरुषों द्वारा पूज्य ठहराया था जो ऐसे सनातन मार्गीका पुनरुद्धार करें।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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