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________________ विवाह-क्षेत्र प्रकाश 1 है, और लेख के इस अंशमें वे सब खंड वाक्य भी श्राजाते हैं जिन्हें समालोचकजी ने समालोचना के पुष्ट ३६-४० पर उधृत किया है : "इन चारों घटनायों को लिये हुए वसुदेवजी के एक पुराने बहुमान्य शास्त्रीय उदाहरणसे, और साथही वसुदेवजी के उक्त वचनोको श्रादिपुराण के उपर्युलिखिल वाक्यों के साथ यसुदेवजीके वे वचन जो पुस्तक के पृष्ठ = पर उद्धृत हैं और जिनमें स्वयंवर विवाह के नियमको सूचित किया गया है इस प्रकार हैं : कन्या वणीते रुचिनं स्वयंवरगता वरं ।। कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥११-७१५ -जिनदासकृत हरिवंशपुगण । अर्थात्-स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको वरण (स्वीकार) करती है जो उसे पसंद होता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन । क्योकि स्वयंवरमें इस प्रकारका-वरके कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नहीं होता। श्रादिपुराणके वे पृष्ट । पर उद्धृत हुए वाक्य इस प्रकार है: सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठोहि स्वयंवरः॥४४-३२॥ तथा स्वयंवरस्यमे नाभवन् यद्यकम्पनाः । कःप्रवचयितान्योऽस्य मागस्यैप सनातनः।।४५-५४३ मार्गाश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान्सन्तः सद्भिःपूज्यास्त एव हि॥४५-५५ इनमेंसे पहले पद्यमें स्वयंवरविधिको सेनातन मार्य' लिखनेके
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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