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________________ प्रस्तावना २३ होते हुए भी आज वे लोग क्या कर रहे हैं जो तीर्थ के उपासक कहलाते हैं, पण्डे-पुजारी बने हुए है और जिनके हाथों यह तीर्थ पड़ा हुआ है। क्या वे इस तीर्थके सच्चे उपासक हैं ? इसकी गुण-गरिमा एवं शक्तिसे भले प्रकार परिचित हैं ? और लोकहितकी दृष्टिसे इसे प्रचार में लाना चाहते हैं? उत्तरमे यही कहना होगा कि 'नहीं। यदि ऐसा न होता तो आज इसके प्रचार और प्रसारकी दिशामें कोई खास प्रयत्न होता हुआ देखने में आता, जो नहीं देखा जा रहा है। खेद है कि ऐसे महान प्रभावक ग्रन्थोको हिन्दी आदिके विशिष्ट अनुवादादिके साथ प्रचारमे लानेका कोई खास प्रयत्न भी आजतक नहीं होसका है,जो वीर-शासनका सिक्का लोकहृदयोंपर अङ्कित कर उन्हे सन्मार्गकी ओर लगानेवाले हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ कितना प्रभावशाली और महिमामय है, इसका विशेष अनुभव तो विज्ञपाठक इसके गहरे अध्ययनसे ही कर सकेगे। यहाँ पर सिर्फ इतना ही बतला देना उचित जान पड़ता है कि श्रीविद्यानन्द आचार्यने युक्त्यनशासनका जयघोष करते हुए उसे 'प्रमाण-नय-निर्णीत-वस्तु-तत्त्वमबाधित' (१) विशेषणके द्वारा प्रमाण-नयके आधारपर वस्तुतत्त्वका अबाधित रूपसे निर्णायक बतलाया है। साथ ही टीकाके अन्तिम पद्यमें यह भी बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्त्वसमूहकी साक्षात् समीक्षाकर इसकी रचना की है।' और श्रीजिनसेनाचार्यने, अपने हरिव शपुराणमें 'कृतयुक्त्यनुशासन' पदके साथ 'वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजम्भते' इस वाक्यकी योजना कर यह घोषित किया है कि समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन ग्रन्थ वीरभगवानके वचन (आगम। के समान प्रकाशमान एव प्रभावादिकसे युक्त है।" और इससे साफ जाना जाता है कि यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक है, आगमकी कोटिमें स्थित है और इसका निर्माण बीजपदों अथवा
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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