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________________ २२ युक्त्यनुशासन के योग्य हो ही नहीं सकता। जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वान्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव ॥६१॥ वीरके इस शासनमे बहुत बड़ी खूबी यह है कि 'इस शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वष रखनेवाला मनुष्य भी, यदि समदृष्टिहुआ उपपत्ति चक्षुसे-मात्सर्यके त्यागपूर्वक समाधानकी दृष्टिसे-वीरशासनका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशृग खण्डित होजाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है। ऐसी इस ग्रन्थके निम्न वाक्यमे स्वामी समन्तभद्रने जोरोंके साथ घोषणा की है कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ इस घोषणा में सत्यका कितना अधिक साक्षात्कार और आत्मविश्वास संनिहित है उसे बतलानेकी जरूरत नहीं, जरूरत है यह कहने और बतलानेकी कि एक समर्थ आचार्यकी ऐसी प्रबल घोषणाके होते हुए और वीरशासनको 'सर्वोदयतीर्थ'का पद प्राप्त
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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