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________________ समन्तभद्र भारती का० ४४ है उसकी प्रतिष धमे प्रवृत्ति नहीं होती। साथ ही, वह 'स्यात्' पद विपक्षभूत धर्मकी सन्धि-सयोजनास्वरूप होता है-उसके रहते दोनो धमोमे विरोध नहीं रहता, क्योंकि दोनोमें अङ्गपना है और स्यात्पद उन दोनों अङ्गोंको जोडने वाला है।' । 'सर्वथा अवक्तव्यता ( युक्त नही हैं, क्योकि वह ) श्रायस-मोक्ष अथवा आत्महितके लोपकी कारण है क्योकि उपेय और उपायके वचन-विना उनका उपदेश नही बनता, उपदेशके विना श्रायसके उपाय का-मोक्षमार्गका अनुष्ठान नहीं बन सकता और उपाय (मार्ग) का अनुष्ठान न बन सकनेपर उपेयरूप श्रायस (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती। इस तरह अवक्तव्यता श्रायसके लोपकी हेतु ठहरती है। अत. स्यात्कारलाछित एवकारसे युक्त पद ही अर्थवान् है ऐसा प्रतिपादन करना चाहिए, यही तात्पर्यात्मक अर्थ है।' (इसतरह तो 'स्यात्' शब्दके सर्वत्र प्रयोगका प्रसङ्ग आता है, तब उसका पद-पदके प्रति अप्रयोग शास्त्रमे और लोकमे किस कारणसे प्रतीत होता है । इस शङ्काका समाधान इस प्रकार है-) तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोगः सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्तिः । इति त्वदीया जिननाग ! दृष्टिः पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ॥४४॥ '(शास्त्रमे और लोकमें 'स्यात्' निपातका) जो अप्रयोग है हरएक पदके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता-उसका कारण उस प्रकारका-स्यात्पदात्मक - प्रयोग - प्रकारका-प्रतिज्ञाशय है-प्रतिज्ञामे प्रतिपादन करनेवालेका अभिप्राय सन्निहित है। -जैसे शास्त्रमे 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग.' इत्यादि वाक्योमे कहीपर भी 'स्यात्' या 'एव'
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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