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________________ का०४५ युक्तयनुशासन शब्दका प्रयोग नही है परन्तु शास्त्रकारोके द्वारा अप्रयुक्त होते हुए भी वह जाना जाता है, क्योकि उनके वैसे प्रतिजाशयका सद्भाव है। अथवा (स्याद्वादियोके) प्रतिषेधकी- सर्वथा एकान्तके व्यवच्छेदकी-युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित होजाती है क्योकि 'स्यात्' पदका आश्रय लिये विना कोई भी स्याद्वादी नही बनता और न स्यात्कारके प्रयोग विना अनेकान्तकी सिद्धि ही घटित होती है, जैसे कि एवकारके प्रयोग विना सम्यक् एकान्तकी सिद्धि नहीं होती । अतः स्याद्वादो होना ही इस बातको सूचित करता है कि उसका प्राशय प्रतिपदके साथ 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका है, भले ही उसके द्वारा प्रयुक्त हुए प्रतिपदके साथमे 'स्यात्' शब्द लगा हुआ न हो, यही उसके पद-प्रयोगकी सामर्थ्य है।' (इसके सिवाय, “सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्" इस प्रकारके वाक्यमे 'स्यात्' पदका अप्रयोग है, ऐसा नही समझना चाहिये, क्योकि 'स्वरूपादि चतुष्टयात्' इस वचनसे स्यात्कारके अर्थकी उसी प्रकार प्रतिपत्ति होती है जिस प्रकार कि 'कथञ्चित्त सदेवेष्ट' इस वाक्यमें 'कथञ्चित्' वचनसे स्यात्पदका प्रयोग जाना जाता है। इसी प्रकार लोकमे 'घट आनय' (घडा लाश्रो) इत्यादि वाक्यो मे जो 'स्यात' शब्दका अप्रयोग है वह उसी प्रतिज्ञाशयको लेकर सिद्ध है।) 'इस तरह हे जिन-नाग -जिनोमे श्रेष्ठ श्रीवीर भगवन् । आपकी ( नागदृष्टिसम अनेकान्त ) दृष्टि दूसरोके-सर्वथा एकान्तवादियोके द्वारा अप्रधृष्य है-अबाधितविषया है और साथ ही परधर्षिणी भी है-दूसरे भावैकान्तादि-वादियोंकी दृष्टिकी धर्षणा (तिरस्कृति) करनेवाली है-उनके सर्वथा एकान्तरूपसे मान्य सिद्धान्तोको बाधा पहुंचानेवाली है।' विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिर्दिश एक एव । त्रयो विकल्पास्तव सप्तधाऽमी स्याच्छब्द-नेयाः सकलेऽर्थभेदे ॥४॥
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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