SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का०४३ युक्तयनुशासन वालोका जो प्रतिषेध है वह उनके स्वरूपभेदका प्रतिषेध है तब भी शब्दो और विकल्पोके भेदको स्वय न चाहते हुए भी सजीके भेदको कैसे दूर किया जायगा, जिससे द्वैतापत्ति होती है ? क्योकि सज्ञीका प्रतिषेध प्रति थ-सजीके अस्तित्व विना बन नहीं सकता। इसके उत्तरमे यदि यह कहा जाय कि दूसरे मानते है इसीसे शब्द और विकल्पके भेदको इष्ट किया गया है, इसमे कोई दोष नही,' तो यह कथन भी नहीं बनता, क्योकि अवतावस्थामे स्व-परका (अपने और परायेका) भेद ही जब इष्ट नहीं तब दूसरे मानते है यह हेतु भी सिद्ध नहीं होता, और असिद्ध-हेतु द्वारा साध्यकी सिद्धि बन नही सकती । इसपर यदि यह कहा जाय कि 'विचारसे पूर्व तो स्व परका भद प्रसिद्ध ही है तो यह बात भी नहीं बनती, क्योकि अब तावस्थामे पूर्वकाल और अपरकालका भेद भी सिद्ध नहीं होता। अत. सत्तावैतकी मान्यतानुसार सर्वथा भेदका अभाव माननेपर 'अभेदी' वचन विरोधी ठहरता है, यह सिद्ध हुआ। इसी तरह सर्वथा शून्यवादियांका नास्तित्वसे अस्तित्वको सर्वथा अभेदी बतलाना भी विरोधदोषसे दूषित है, ऐसा जानना चाहिये । (अब प्रश्न यह पैदा हाता है कि अस्तित्वका विरोधी होनेसे नास्तित्व धर्म वस्तुमे स्याद्वादियो- द्वारा कैसे विहित किया जाता है ? क्योकि 'अस्ति' पदके साथ 'एव' लगानेसे तो 'नास्तित्व' का व्यवच्छेद (अभाव) होजाता है और 'एवके साथमे न लगानेसे उसका कहना ही अशक्य ठहरता है-वह पद तब अनुक्ततुल्य होता है । इससे तो दूसरा कोई प्रकार न बन सकनेसे अवाच्यता-प्रवक्तव्यता ही फलित होती है । तब क्या वही युक्त है ? इस सब शङ्काका समाधान इस प्रकार हैं-) 'उस विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' नामका निपात (शब्द) हैजो (स्याद्वादियोके द्वारा सप्रयुक्त किया जाता है और) गौणरूपसे उस धर्मका द्योतन करता है-इसीसे दोनो विरोधी-अविरोधी (नास्तित्वअस्तित्व-जैसे) धमोका प्रकाशन-प्रतिपादन होते हुए भी जो विधिका अर्थी
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy