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________________ का० ४३ समन्तभद्र - भारती - 'यदि (सत्ताद्वैतवादियो अथवा सर्वथा शून्यवादियोकी मान्यतानुसार सर्वथा अभेदका अवलम्बन लेकर ) यह कहा जाय कि पद - श्रस्ति या नास्ति - ( पने प्रतियागो पदके साथ सर्वथा) अभेदी है और इसलिये एक पदका श्रभिधेय अपने प्रतियोगी पदके अभिधेयसे च्युत न होनेके कारण वह आत्महीन नही है - तो यह कथन विरोधी है अथवा इससे उस पदका अभिधेय आत्महीन ही नही, किन्तु विरोधी भी होजाता है, क्योकि किसी भी विशेषका - भेदका - तब अस्तित्व बनता ही नही ।' ५६ व्याख्या - उदाहरण के तोरपर, जो सत्ताऽद्वैत ( भावैकान्त) वादी यह कहता है कि 'अस्ति' पदका श्रभिधेय अस्तित्व 'नास्ति' पदके अभिधेय नास्तित्वसे सर्वथा अभेदी (अभिन्न ) है उसके मतमे पदो तथा अभिधेयोका परस्पर विरोध भेदका कर्ता है, क्योकि सत्ताऽद्वैत मतमे सम्पूर्ण विशेषो - भेदोका अभाव होनेसे अभिधान और अभिधेयका विरोध हैदोनो घटित नही हासकते, दोनोका स्वीकार करनेपर श्रद्वतता नष्ट होती है और उससे सिद्धान्त-विरोध घटित होता है । इसपर यदि यह कहा जाय कि 'अनादि विद्या वशसे भेदका सद्भाव है इससे दोष नहीं' तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योकि विद्या विद्या भेद भी तब बनते नहीं । उन्हे यदि माना जायगा तो द्वैतताका प्रसङ्ग आएगा और उससे सत्ताऽद्वैत सिद्धान्तकी हानि होगी - वह नहीं बन सकेगा । अथवा अस्तित्वसे नास्तिस्व श्रभेदी है यह कथन केवल श्रात्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी है ( ऐसा 'च' शब्द के प्रयोग से जाना जाता है), क्योकि जब भेदका सर्वथा अभाव है तब अस्तित्व और नास्तित्व भेदोका भी प्रभाव है। जो मनुष्य कहता है कि 'यह इससे अभेदी है' उसने उन दोनोका कथचित् भेद मान लिया, अन्यथा वह वचन बन नही सकता, क्योकि कथचित् ( किसी प्रकार से ) भी भेदीके न होनेपर भेदीका प्रतिषेध- प्रभेदी कहना - विरुद्ध पड़ता है कोई भेदी ही नही तो अभेदी ( न भेदी) का व्यवहार भी कैसे बन सकता है ? नही बन सकता । यदि यह कहा जाय कि शब्दभेद तथा विकल्पभेदके कारण भेदी होने
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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