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________________ का० ५३ युक्तयनुशासन ५हूं wwwwVAKAMV स्तित्वका भी और 'नास्ति' पदके द्वारा अस्तित्वका भी प्रतिपादन होनेसे तथा 'जीव' पदके द्वारा जीव अर्थका भी और 'जीव' पदके द्वारा जीव अर्थका भी प्रतिपादन होनेसे ग्रस्ति नास्ति पदोमे तथा जीव प्रजीव पदोमे घटकुट (कुम्भ) शब्दोकी तरह परस्पर पर्यायभाव ठहरता है। पर्यायभाव होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोमे भी सभी मानवोके द्वारा, घट-कुट शब्दोकी तरह, चाहे जिसका प्रयोग किया जा सकता है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर सपूर्ण अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य से ( प्रतियोगी से ) च्युत ( रहित ) हो जाता है - अर्थात् अस्तित्व नास्तित्व से सर्वथा रहित होजाता है और इससे सत्ताऽद्वैतका प्रसङ्ग आता है । नास्तित्त्वका सर्वथा अभाव होनेपर सत्ताऽद्वैत श्रात्महीन ठहरता है, क्योकि पररूपके त्यागके अभाव मे स्वरूप ग्रहणकी उपपत्ति नही बन सकती घटमे घटरूपके त्याग विना अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा नही बन सकती। इसी तरह नास्तित्वके सर्वथा अस्तित्वरहित होनेपर शून्यवादका प्रसङ्ग आता है और भाव भावके विना बन नही सकता, इससे शून्य भी श्रात्महीन ही होजाता है । शून्यका स्वरूपसे भी अभाव होनेपर उसके पररूपका त्याग असभव है - जैसे पटके स्वरूप ग्रहण के अभाव मे शाश्वत अपरूपके त्यागका असभव है । क्योकि वस्तुका वस्तुत्व स्वरूपके ग्रहण और पररूनके त्यागकी व्यवस्थापर ही निर्भर है । वस्तु ही पर द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी अपेक्षा श्रवस्तु होजाती है'। सकल स्वरूपसे शून्य जुदी कोई वस्तु सभव ही नहीं है । अतः कोई भी वस्तु जा अपनी प्रतिपक्षभूत वस्तुसे वर्जित है वह अपने आत्मस्वरूपको प्राप्त नही होती। विरोधि चाऽभेद्यविशेष- भावात्तद्द्योतनः स्याद्गुणतो निपातः । विपाद्य- सन्धिश्च तथाऽङ्गभावादवाच्यता श्रायस - लोप हेतुः ॥४३॥ १ " वस्स्वेवाऽवस्तुता याति प्रक्रियाया विपर्ययात् । " — देवागम ४८
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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