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________________ ४० : धर्मविन्दु ___-लक्ष्मी मंगलसे उत्पन्न होती है, चतुराईसे उसकी- वृद्धि होती है । दाक्षिण्यतासे उसका मूल बनता है या जड जमती है, तथा संयमसे प्रतिष्ठा होती है व स्थिरता आती है। .. न्यायसे धन पैदा करना व अन्याय मार्ग पर खर्च न करना, लक्ष्मीका संयम है । इससे लक्ष्मी स्थिर होकर रहती है व उसका नाश नहीं होता। तथा-आयोचितो व्यय इति ॥२५॥ मूलार्थ-आयके अनुसार व्यय करना चाहिए। विवेचन- आय-- धनके कमानेके बारेमें पहले कहा जा चुका है। उसीके अनुसार नीति रखना चाहिए। कमानेसे धन-धान्य आदिकी वृद्धिको आय कहते हैं । उचितः-उसके योग्य या अनुरूप । व्यया-आश्रितोका भरण पोषण, खुदका खर्च, देवे, अतिथि आदिकी पूजा व सेवामें खर्च । नीतिशासमें भी अपनी आयके किस भागको किसमें खर्च करना उचित कहा है सो बताते हैं "पादमायानिधि कुर्यात् , पाद वित्ताय घट्टयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं, पादं भर्तव्यपोषणे ॥ १९ ॥ आयादर्द्ध नियुञ्जीत, धर्म समधिकं ततः। शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम्" ॥ २० ॥ -~- अपनी आयके चार भाग करके, उसमें एक घरमें अना मत या संग्रह करके रखे, ताकि वह आपत्तिके समय काम आवे । एक भाग व्यापार आदिमें लगावे जिससे' पैसोमें वृद्धि हो. 'एक भारा
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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