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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४१ धर्मके लिये तथा अपने उपभोगके लिये रखे और एक भाग (चतुर्थ) अपने आश्रित व कुटुंबीजनों के भरणपोषणमें खर्च करें। किसी दूसरे मतसे अन्यत्र कहा है कि धनके दो भाग करे, एक भाग यदि हो सके तो कुछ ज्यादा धर्ममें खर्च करे और शेष धनमें से तुच्छ ऐसा इस लोक संबन्धी अपना शेष कार्य करे । इन दोनों की भिन्नता समय के अनुसार आई हुई प्रतीत होती | आजकल के समय में भी समय देख कर धार्मिक कामोंमें तथा खास कर सार्वजनिक कामोंमें जिससे समाजकी उन्नति हो, अपनी आयका एक विशेष भाग अवश्य ही खर्च करना चाहिए। वह सोलहवां, वीसवां आदि हो सकता है । ' जैसे रोगसे शरीर कमजोर होता है वैसे ही आयसे ज्यादा खर्च करनेसे धनहानि व ऋण हो जाता है और सब प्रकारके उत्तम व्यवहार चलानेमें वह असमर्थ हो जाता है। कहा है " आयव्ययमनालोच्य, यस्तु वैश्रवणायते । अचिरेणैव कालेन, सोऽत्र वै श्रवणायते" ॥२१॥ - जो पुरुष आय, व्ययका ख्याल रखे विना वैश्रवण- कुवेरकी तरह खर्च कर देता है वह थोडे समय में, शीघ्र ही श्रवण मात्र रह जाता है याने 'वह धनवान था ' ऐसी श्रुति मात्र रह जाती है । अपनी शक्तिके अनुसार ही व्यय करे, वरना ऋण होता है व हृदयमें सता रहता है । देखादेखी व मौजशोखके खर्चको कम करना चाहिए। गृहस्थके सामान्य धर्म में इन गुणोका पालन
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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