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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ३१ जाने आनेके बहुतसे गत्ते होनेसे घरको भली भाति रक्षा होना संभव नहीं रहता । त्रियोंकी लज्जा तथा धनकी हानि होना संभव है । अधिक द्वारवाले घरकी रक्षामें अधिक समय व पैसा भी लगता है । घोडे दरवाजेवाले घरकी रक्षा करना सुगम रहता है। तथा-विभवाद्यनुरूपो वेपो विरुद्धत्यागेनेति ॥२४॥ मूलार्थ-विरुद्ध वेपका त्याग करके अपनी संपत्ति के अनुरूप वेषभूषा पहने। विवेचन-विभवादीनाम्-संपत्ति, अवस्था, स्थिति तथा देशके, अनुरूप:-योग्य-अनुसार, वेप:-वन आदि, विरुद्धस्य-जंघा आदिका अर्ध नग्न दीखना, सिर पर छोगा, खूब तंग कपडे अथवा वदमाश व लुबी जैसी चेप्टा, स्पष्ट झलके ऐसा या सुंदर तथा आकर्षक, त्यागेन-छोडनेसे । प्रत्येकको अपने वैभव आदि स्थितिके अनुसार वेशभूषा धारण करना चाहिए। जिस वेपो लोगोमें हंसी न हो, खर्च आदि भी वैभवके अनुसार ही हो ऐसे कपड़े पहने । विरुद्ध वेश न पहने । लोगोंके हंसी, मजाक या निन्दाका पात्र न बने । सुंदर वेशभूषाका मना नहीं करते पर केवल आकर्षक हो यह ठीक नहीं, वैभव आदि पदार्थीक अनुकूल हो । प्रसन्न वेशभूषा पहननेवाला मंगलमूर्ति कहलाता है और मंगलसे ही लक्ष्मी मिलती है । कहा है "श्रीमद्गलात् प्रभवति, प्रागल्भ्याच प्रवर्द्धते । दाक्षिण्यात् कुरुते मूलं, संयमात् प्रतितिष्ठति" ॥१८॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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